12 October 2015

मतदाता भी अब पहले जैसे नहीं रहे…

अब से 10 वर्ष या उससे पहले नेताओं के लिए जनता को बरगलाना आज के मुकाबले कही ज्यादा आसान काम था। भ्रष्टाचार, गरीबी, भुखमरी या बेरोज़गारी तब भी थे और अब भी हैं। खासकर बिहार जैसे राज्य में जहाँ की जनता खुद को राजनीति का तीस मार खां समझती है, उसे खुद से ये सवाल करने चाहिए की क्या उनके लिए राजनीति का स्तर बस इतना ही की नेताओं को जल्लाद, नरभक्षी, चोर, डाकू, कनफुँकवा जैसे शब्दों का प्रयोग उन्हें समझाने के लिए करना पड़ता हैबिहार की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कुपोषण, अशिक्षा और बेरोज़गारी जैसे मसले में सबसे ऊपर है। लेकिन अगर हम 2001 के जनगणना के आकड़ों से 2011 के आंकड़ों की तुलना करें तो, बिहार आश्चर्यजनक तरीके से विकास के रास्ते पर उड़ान भरते देखा जा सकता है। उस वक्त भी लालू, नीतीश, राबड़ी व रामविलास जैसे नेताओं पर जनता भरोसा करती थी और अबतक करती आयी है। पर, 1990 की पिछड़ा राजनीति के फलस्वरूप कई क्षेत्रीय दलों का गठन हुआ। राष्ट्रीय पार्टीयाँ, क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने लगी और राष्ट्रीय दलों में क्षेत्रीय दल के गुण-दोष देखे जाने लगे व राष्ट्रीय दलों के गुण और दोष क्षेत्रीय दलों में देखने को मिलने लगी। पहले, आज की तरह न तो फेसबुक इंटरनेट का चलन था और न ही हर किसी को टीवी या अखबार नसीब थी। लोग नेताओं के रैलियों में जाते थे लेकिन आज की तरह नहीं या नेता लोगों के घर-घर जाकर उनसे वायदे करते और मतदाता अपने नेता के प्रति वही आम धारणा बना लेता जो उसे बताया जाता।

कल मैं रविश की रिपोर्ट देख रहा था, जो समस्तीपुर रिपोर्टिंग करने गए थे। गाँव की महिलाओं में गजब की राजनीतिक दूरदर्शिता समझने को मिली, हर महिला विकास को ही मुद्दा मान रही थी। टीवी,रेडिओ, साइकिल या स्कूटी बांटकर वोट लेने की चाहत रखने वाले लोग भी अब गांव-गावं जाकर लोगों से मिलने कतरा रहे हैं, वे जानते हैं की जनता अब पहले जैसी नहीं रही। सख्त सवाल करेगी, क्षेत्र की योजनाएं पूछेंगी तथा अपनी तरह-तरह की बुनियादी सवालों से उनके चेहरे का रंग फीका कर देगी। उस रिपोर्ट में मैंने उन महिलाओँ का अपने लोकतंत्र के प्रति सच्ची आस्था देखी जिनके गांव में बिजली नहीं है, घर में टीवी नहीं है और अखबार के बारे में पूछे जाने पर कहती है की वो तो आधा झूठ ही रहता है। कह रही थी की नितीश कुमार यहाँ आएं तो उन्हें पूछेंगे की आज तक गांव में बिजली क्यों नहीं आई, नरेंद्र मोदी आते हैं और रैलियों में भाषण झाड़कर चले जाते हैं, हमें कौन देखने आता है।  जिस सख्त लहजे का वे इस्तेमाल कर रही थी बेशक मेरा दिल ये सब देखकर झूम उठा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध, वंशवाद के खिलाफ भी ये मतदाता आज नहीं तो अगले चुनाव तक जागरूक जरूर हो जाएंगे। जातिवादी का चलन अक्सर पुरुष मतदाताओं में देखा जाता है लेकिन जिस तरह से बिहार की अनपढ़ महिलाये अपने नेता से हिसाब मांगने लगी है, क्षेत्र में न जाने वाले नेताओं को खरी-खोटी सुनाने लगी है, लगता है किसी के अच्छे दिन आएं न आएं, लोकतंत्र के अच्छे दिन जरूर आ गए हैं.

जरूरत है, नेताओं की आँखों में ऑंखें डालकर उन्हें याद दिलाएं की हमने उन्हें किसलिए चुना है? हमें उनसे काम की अपेक्षा है न की सदन में हंगामें कर के जनता का पैसा व वक्त बर्बाद करने की.....

लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना

2 comments:

  1. जरूरत है, नेताओं की आँखों में ऑंखें डालकर उन्हें याद दिलाएं की हमने उन्हें किसलिए चुना है? हमें उनसे काम की अपेक्षा है न की सदन में हंगामें कर के जनता का पैसा व वक्त बर्बाद करने की.....
    बहुत सही कहा आपने लेकिन बिडंबना है सत्ता में आने के बाद.. मंत्री या कोई पद लेने की बाद सुनते कहाँ है ये लोग ...

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