04 May 2016

जन्मदिन मुबारक हो...

मेरी जिन्दगी में आज 20वें वसंत की आगमन हो गई| बचपन जिया, खेला, कूदा, मौज मस्ती की लेकिन उससे ज्यादा पढाई की| मैंने अपनी जिन्दगी कड़े अनुशासन में जिया| 7-8 साल की अवस्था में यहाँ मेरे स्कूल में साथ पढने वाले दोस्त शाम होते ही बैट-बॉल लेकर खेतों में खेलने चले जाते थे वहीँ मैं अपने दूकान के चबूतरे पर बैठकर कुछ वैसी ही आजादी पाने का सपना देखता था| मेरा भी मन करता की मैं भी अन्य दोस्तों की तरह गाँव के किनारे बहने वाली नदी में गोते लगाऊं, खेतों में मोटरगाड़ी की मुद्रा में दौडू या उनकी ही तरह पतंग उडाऊं और फोटो-गोली खेलूं| पर बचपन में मुझे खेलने या टीवी देखने की बिलकुल भी आजादी नहीं मिली| उस वक्त तो मेरी हालत और भी खराब हो जाती थी, जब टीवी पर शक्तिमान, जूनियर जी जैसे धारावाहीक आ रहे होते थे और मैं मन मसोस कर रह जाता था|
                                                                           
ये सब मेरे दादाजी के कठोर अनुशासन के नियम थे| कक्षा सात से ही वे मुझे 3 बजे रोज सुबह उठा देते चाहे गर्मी हो या सर्दी और पढने को कहते| नियम ऐसे थे की न उठो तो नींद में ही चप्पलों की बौछार हो जाती| नतीज़न डर से एक ही आवाज में उठकर लालटेन जलाकर मुझे पढना पड़ता| कुछ और भी सख्त नियम थे जैसे की भोर लिखना नहीं बल्कि पढना है वो भी बोलकर| पढ़ते समय दिवार के सहारे टिककर नहीं बैठना है, तकिया लेकर नहीं पढना है, क्यूंकि मेरे दादाजी के अनुसार ये सारी विश्राम की मुद्रा ला देती है| बहुत सख्त अनुशासन में मैंने अपना 14 साल जिया| सारी बातें बताना संभव नहीं| क्यूंकि मेरी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा सरकारी स्कूलों के कमरों और लालटेन की रोशनी के बीच एक मीठी एहसास सी  रही| कभी अमीर बन पाने का ख्वाब भी नहीं देखा, बस हाई स्कूल तक हाफ पैंट में ही कपडे के झोले में किताब लेकर पढने जाता रहा|

पर अब मैं अपनी स्थिति की तुलना करता हूँ तो पाता हूँ की मेरा भविष्य इन कठोर अनुशासनों के बल पर एक सही और संतुलित मार्ग पर मौजूद है| मैंने जिन्दगी की इन 19 बसंतों में काफी कुछ देखा, काफी कुछ सिखा और समझा| तमाम परीक्षाओं में सफल होने के सुखद एह्साह को करीब से देखा तो असफल होने का दुख भी झेला|
जिन्दगी में बहुत सी बाधाओं, अरचनों को बहुत हिम्मत से अपने परिवार को भिड़ते देखा तो मेरे अन्दर भी किसी मुसीबत से मुकाबला कर सकने का साकारात्मक आत्मविश्वास पैदा हुआ| झुककर रहना मुझे कभी मंजूर नहीं रहा| क्यूंकि अन्याय के विरुद्ध झुककर रहना कभी सिखा ही नहीं| अपनी इस छोटी सी जिन्दगी में कितने ही बदतमीज और कामचोर सरकारी सेवकों को सबक सिखाई| चाहे वो मेरे से कितना भी बड़ा क्यूँ न हो उसकी हर एक बदतमीजी का कलम के सहारे माकूल जवाब दिया| पर भाग्यशाली रहा की मेरे अंदर गद्दारी कभी नहीं आ पायी| लेकिन मेरी कमजोरी यह है की गुस्सा और जलन मेरे अंदर मौजूद है और वो हमेशा इस प्रयास में रहती है की उनके मित्र (गद्दारी, धूर्तता, क्रूरता, इर्ष्या) कब पनपे? पर ईमानदारी का मोल लगाना सीखना मेरे जीवन की सबसे बड़ी सीख रही| और मुझे विश्वास है की मैं जब तक लिखता रहूँगा, ईमानदारी, प्रेम, निडरता और दया को अपने अंदर से जाने नहीं दूंगा|

जिन्दगी कितना कुछ सिखाती है| वो पत्थर को भी तरासकर उसे मूल्यवान बना देती है| पर शर्त है की पत्थर भी गुणवान और मेहनती होना चाहिए| जिंदगी जब हमें तरासती है तो दर्द होता है, मुश्किलें आती है और काफी तकलीफ भी होती है लेकिन जो उसे झेल जाता है वही अन्य पत्थरों की बीच जगमगाने लगता है और फिर जौहरी उसे पहाड़ों से लाकर तिजोरी में रख देता है| फिर तो उसके मूल्य के क्या कहने! ठीक इसी तरह मैं भी परिणाम की चिंता किये बगैर अपना लक्ष्य हासिल करना चाहता हूँ, पर ये लालच मानती ही नहीं| और मैं सपने देखने लग जाता हूँ|
         “असफलताएं आईं थी मुझे विचलित करने लेकिन उसे मैंने यूँ ही ठुकरा दिया ये कहकर की तुम्हारी क्या औकात जो मेरी शख्सियत का फैसला तुम करो जिसके पास बदनामी के अलावे देने को कुछ है ही नहीं”

तो कुल मिलाकर जिंदगी के हर फैसले का एक मोल होता है और उससे ही उसकी नियति निर्धारित होती रहती है| मेरी नियति मुझे जहाँ लेकर जाए लेकिन मैं अपनी नियति को भाग्य के सहारे नहीं छोड़ सकता| मेहनत करता रहूँगा क्यूंकि मेहनत का मूल्य मिलते देखा है... बस कमी है तो मेरे सफल होने ही...


            || आप सभी को मेरे जन्मदिन पर मेरा चरणस्पर्श || 

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