02 February 2017

बजट के बोझ तले ‘बेचारी जनता’

(सटीक और निष्पक्ष लेख...)
भारत सरकार का आम बजट हर साल देश की मध्यमवर्गीय और निम्न आय वाली आबादी के लिए उम्मीद की किरण लेकर आती है| चुनावी वादों, मुफ्तखोरी और कालेधन के संकरे रास्ते से गुजरते-गुजरते इसकी चमक फिकी पड़ जाती है| बेचारी आम जनता दिल्ली के तख़्त से निकले उम्मीदों के पिटारे को देखकर-सुनकर भी कुछ ज्यादा रियेक्ट नहीं कर पाती| किसी से कुछ पूछो तो कहता है की मिला ही कब है जो उम्मीद करें| इस बार भी नरेन्द्र मोदी का बजट शो उनके सबसे अक्लमंद जेटली ने पेश किया किया| विकास, योजनाओं और गरीबी मिटाने की डुगडुगी बजी मगर नाचा कोई नहीं, सब अच्छे दिन के सपने में मस्त मिले|

इस बजट में कृषि, कौशल विकास, रेलवे व अन्य बुनियादी ढांचे के विकास के लिए ढेर सारी अच्छी घोषणाएं की गई| मध्यमवर्ग के लिए कर छूट की सीमा बढाकर जहाँ 3 लाख किया वहीँ 5 लाख तक आमदनी वाले बाबूओं के लिए कर दर को 10% से घटाकर 5% कर दिया| नोटबंदी जैसे सख्त फैसलों की कामयाबी-नाकामयाबी को बड़े ही बेहतर और मंझे अंदाज में सब अच्छा दिखा टरका दिया| कैशलेस लेनदेन और डिजिटल भुगतान पर भी सरकार की नीतियों पर कुछ ख़ास टिप्पणी नहीं की जा सकती| नौकरियों के मसले पर सरकार की चुप्पी आम चुनाव का इंतजार का संकेत करती है| चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा सरकारी कामकाज और खर्च-सुविधाओं की पोल खोलती है| ग्रामीण क्षेत्रों में कल्याणकारी योजनाओं में सरकारी धन का बहाव आम लोगों के हक़ में सार्थक उतना ही सिद्ध लगता है जितना की होता आया है| वहीं कालेधन-भ्रष्टाचार के मसले पर नोटबंदी को रामबाण करार देना सरकार की राजनीतिक मजबूरियों की ओर इशारा करती है|

साफ़ है की बजट आम जनता से ज्यादा उधोगपतियों, कारोबारियों और अमीरों का हित-अहित से सधी होती है इसलिए जनता कभी बेसब्री से बजट का इंतजार नहीं करती| मतलब आम जनता-आम लोग सिर्फ चुनाव का इंतजार करते हैं| वर्तमान में यूपी व पंजाब के चुनावी घोषणापत्रों में गरीबों के लिए, बेसहारों के लिए जो व्यवस्थाएं की गई जनता शायद उसी का इंतज़ार करती है| हर राजनीतिक दलों ने मुफ्तखोरी का लंगर चलवाने का वायदा कर रखा है| कोई 5 रु० में पेटभर भोजन दे रहा है तो कोई सभी को घर| कोई छात्रों को मोबाइल बाँट रहा है तो कोई मुफ्त का लैपटॉप| सब झूम रहे हैं, जैसे भुखरों की टोली में लंगर खोले जा रहे हैं|

भारत में लीडरशीप के नाम पर सीधा मतलब भूखी जनता की हड्डियाँ नोचना है| टैक्स की खैरात से मजे लूटकर, उनकी हड्डियाँ चूसकर बोटी को गरीबों में लूटा देना है| जनता भी मजे में है लेकिन मुफ्तखोरी की जो लत उसे लोकतान्त्रिक या चुनावी अधिकारों के नाम पर लगी है न वो उसकी कीमत उसे अपनी मेहनत की कमाई को सरकारी तंत्र से नुचवाकर चुकानी पड़ती है| सत्ता में कोई भी बैठा हो वो पहले पार्टी का होता है ये जुमलेबाजी भले लगे मगर हकीकत है| राजनीतिक चंदे से कालेधन को सफ़ेद करने वाले जनता के कभी सगे नहीं हो सकते| अगर ऐसा रहा और मतदाता अपना ईमान अपनी मुफ्तखोरी की वजह से बेईमानों को बेचते रहे तो निश्चित ही वे अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को हरामखोरी का गुलाम बना बैठेंगे|

इस तरह बजट के विश्लेषण या फायदे-नुकसान के झमेले से हटकर सत्ता के जादूगरों के शो देखिये, उसे परखिये और चुनावों में सही-गलत का निर्णय कीजिये| हर बजट को गरीबों को समर्पित बताने वालों से पूछिये की 70 सालों से आखिर ये बजट किसके लिए आता है और अब भी हर बजट में गरीब शब्द कहाँ से लैंड कर जाता है? मतलब साफ़ है की जनता को देशहित में सोंचना होगा क्योंकि पार्टीहित सिर्फ देश को राजनीतिक गुलाम ही बना सकता है| सभी अपने नेताओं से सवाल पूछिये की आखिर मेरी आवाज कहाँ दबती है? मेरा अधिकार कौन लूटता है? और हाँ पूछने वाले की मासूमियत पर शंका नहीं कीजिये!
नहीं तो किसी गरीब के टैक्सों से हर साल कॉर्पोरेट उधोगपतियों को ढाई लाख करोड़ रु० माफ़ करने का खैराती अधिकार उन्हें किसने दिया?

Image result for budget 2017 india imageलेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... ब्लॉग पर आते रहिएगा...