30 December 2015

भरोसे के पाकिस्तानी नाव पर सवार मोदी...

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विपक्ष के शोर-शराबे के काल्पनिक समुद्री लहर में पाकिस्तानी नौके पर सवार होकर बेहताशा शांति और भाईचारे के तलाश में भागे चले जा रहे हैं| नौके में ताशकंद, शिमला, कारगिल, मुंबई ब्लास्ट जैसे काफी छेद हैं फिर भी जबतक की उनका नौका डूब ना जाए वो मानने को तैयार नहीं की उनका नौका डूब सकता है| इतना ओवर कॉन्फिडेंस उन्हें बेशक चुनाव का समुद्री लहर डूबा ले जायेगी अगर इस बीच कोई अनहोनी हो गयी तो| सारा दोष मोदी के ऊपर जाएगा| अभी तो डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत या क्लीन गंगा जैसे उनके अभियानों की चर्चा दूर-दराज के गांवों में उनकी विफलता के उदाहरण में गिनाये जाते हैं| फिर भी तो गोल्ड स्कीम लाने का सुझाव उन्हें किसने दिया, उसे ढूंढ़कर ‘ग्रेट थिंकर ऑफ़ द वर्ल्ड’ का अवार्ड दिया जाना चाहिए| वे अपने सिपह्सलाहरों की भंवर में फंसकर मान बैठे हैं की वे जो भी फैसले लेंगे, जनता उसे सिर-आँखों पर लेगी| वे इंदिरा की तरह मानने लगे हैं की ‘मोदी इज इंडिया’!
              मोदी अपने कार्यकाल के दूसरे साल में 2.5 लाख किलोमीटर की विदेश यात्रा कर चुके हैं| इस बार तो हद ही कर दी, गए थे रूस आते समय उतर गए पाकिस्तान में| पता है, उनके इस फैसले से पूरा देश सन्न रह गया| पाकिस्तान, जहाँ की मिट्टी को चूमने वाले हर भारतीय प्रधानमंत्री को बदले में खंजर ही मिला है| यह सच्चाई है उस पाकिस्तान की जिसने हमेशा भारत की बर्बादी के सपने देखे हैं, उसे बर्बाद करने की कई सफल साजिश भी की है| चंद पाकिस्तानियों की वजह से हमारी घाटी सुलग रही है| कश्मीरी पंडितों को फिर से बसाने का दावा करने वाले मोदी असहाय-बेबसी से पाकिस्तान की तरफ देख रहे हैं| 17 साल पहले अटल ने भी कोशिश की की थी भाईचारा निभाने की, लेकिन क्या हुआ? आज चीन हमारे कश्मीर से सड़क ले गया, वहां हवाई अड्डे बना रहा है, रेल की पटरियां बिछा रहा है, लेकिन हम क्या कर रहे हैं? वही तोता-रटंत जुमले की ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’ वो भी तब जब पाकिस्तान हमारी कश्मीर की दो-तिहाई हिस्से पर कब्जे कर चुका है| नेहरु की बसाई कश्मीर भंवर में हमारा कोई प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र से आगे क्यों नहीं सोच पाता? देश को अब तो जानने का अधिकार मिलना ही चाहिए की ऐसा कौन सा डर है जो मोदी जैसे स्पष्टवादी व्यक्ति को भी मौन धारण करा देता है? कब तक हम POK को सिर्फ भारत के नक़्शे पर ही दिखाते रहेंगे? क्या मजबूरी है हमारे देश की?
                   क्या हम युद्ध से डरते हैं या हमारी डर की वजह इस्लामिकImage result for modi with nawaz imageImage result for modi with nawaz image देश हैं? या हम अमेरिका के इशारों पर चलने के लिए बेबस हैं? हम सम्पूर्ण प्रभुतत्व संपन्न परमाणु शक्ति हैं, लेकिन किस काम के? 125 करोड़ आबादी वाले देश को 18 करोड़ आबादी वाला पाकिस्तान जैसा मामूली और भ्रष्ट देश परमाणु हमले की धमकियाँ देकर डरा जाता है| हमारे सैनिकों के सिर काट लिए जाते हैं, पाकिस्तान में बैठकर भारत के हृदय मुंबई को दहला देने की सफल साजिश रची जाती है, सीमा पर अंधाधुंध गोलीबारी करके सैकड़ों मासूमों की जान ले ली जाती है| हमारे साथ ही ऐसा क्यों होता है? चाइना के साथ ऐसा क्यों नहीं होता, इजराइल के साथ ऐसा क्यों नहीं होता? क्योंकि हमारे देश के तथाकथित शांतिप्रिय और सहिष्णु लोगों ने हमारे परमाणु अस्त्रों को चूड़ियाँ पहना रखी है| ‘नो फर्स्ट यूज़’! मतलब हम पहला प्रयोग नहीं करेंगे| जब तक की पाकिस्तान अपने परमाणु बम हमपर न गिरा जाए| हंसी आती है मुझे ऐसे मूर्खतापूर्ण समझौतों से, क्योंकि तब न तो बम के बटन दबाने के लिए हमारे प्रधानमंत्री मौजूद रहेंगे और न ही पाकिस्तान पर निंदा प्रस्ताव पास करने के लिए हमारे नुमाइंदे! और न रहेगी इन सब का विश्लेषण करने के लिए हमारी जनता| क्योंकि पाकिस्तान कभी नहीं कहता की हम पहला प्रयोग नहीं करेंगे!
              हमारे प्रधानमंत्री बखूबी जानते हैं की इस तरह की यात्राओं से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला! नवाज शरीफ तो प्रधानमंत्री के पुतले हैं| पाकिस्तान में सेना की ताकतों के आगे सारा पॉलिटिक्स नतमस्तक है| ऐसा हमने तख्तापलट के रूप में कई बार देखा है| बेशक, हम जानते हैं की भारत और पाक के बीच मधुर संबंध स्थापित हो जाए तो दोनों को हथियारों पर की जाने वाली बेहताशा खर्च दोनों देशों की गरीबी, अशिक्षा का उन्मूलन करने में सार्थक होगी| ऐसे में न तो दोनों को हथियार के लिए अमेरिका-रूस की चमचागिरी करनी पड़ेगी और न ही उनके उलुलजुलुल के प्रतिबंधों को मानने के बाध्यता| फिर भी ऐसा करने कौन देगा दोनों देशों को? संयुक्त राष्ट्र जैसी दोगली मानसिकता वाली संस्था के रहते विश्व-शांति दूर-दूर तक फटक भी नहीं सकती| अमेरिका के टुकड़ों पर पल रही पाक की कश्मीर पर सीनाजोरी पर सारा संसार आँखें मुंदा बैठा है| हथियार के पैसे से फल-फुल रहे अमेरिका के पैरों में बेड़ियाँ पहनाने की जुर्रत इजराइल के अलावा है किसी में? इस सदी में तो दुनिया में शान्ति हो ही नहीं सकती क्योंकि, इस शोरशराबे से भरी दुनिया में शांति की वकालत वो करता है जिसने कभी ‘डाईनामाइट’ की अविष्कार की थी? (अल्फ्रेड नोबेल)...

लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... आते रहिएगा...


28 December 2015

मेरी इलाहाबाद यात्रा...(सेकुलरिज्म से मेरा परिचय)

नमस्कार! पिछले कुछ दिनों से मैं प्रतियोगिता परीक्षा के तैयारियों में जुटा था, इस कारण मेरे पाठकों को नए-नए ब्लॉग से महरूम रहना पड़ा| खैर, परीक्षा के सिलसिले में मुझे अपने दोस्त राजीव के साथ इलाहाबाद जाना था| 19 दिसम्बर की सुबह हमदोनों ने पटना जंक्शन से ट्रेन पकड़ी और खड़े-खड़े पूरी यात्रा की| वहां पहले से मौजूद पटना शहर के दो और परीक्षार्थी अपने कुशल व्यक्तित्व से मेरे दोस्त बन गए| बता दूँ की उनमें से एक मुसलमान था, और उसका नाम आलम था| ये मेरे लिए हैरत की बात थी क्यूंकि आजतक मैंने संघ के दर्शन को मानते हुए कभी ऐसे किसी भी शख्स को नहीं देखा था जो मेरे विचारों पर खड़ा उतरता हो| छः-सात सालों का लम्बा समय मैंने विभिन्न समुदायों के छात्रों के साथ कोचिंग और कॉलेजों में गुजारा है| पटना, एक ऐसा शहर जहाँ हर-एक धर्मों का मिलन स्थल है| यहाँ जैन का भी पवित्र मंदिर है तो बोद्ध का पावन स्तूप भी है तो ईसाईयों के बड़े-बड़े चर्च (पादरी की हवेली) भी हैं| दशमेश गुरु गुरु गोविन्द सिंह जी की जन्मस्थली पर तो आम दिनों में सिखों से ज्यादा दुसरे समुदाय के लोग गुरुवाणी शबद का आनंद ले रहे होते हैं| मुसलमानों के इबदातखानों की तो भरमार है| बेशक, यहाँ की बहुसंख्यक आबादी हिन्दू है लेकिन हिन्दुओं का सहिष्णु व्यवहार अगर किसी सेक्युलर बयानवीरों को देखना है तो वो पटना आये, घूमकर इसकी वास्तविकता देखे| पर कोई ऐसा करेगा ही क्यों?

इलाहाबाद पहुँचने के बाद मैं, राजीव, रिक्की और आलम हम चारों ने स्टेशन के पास एक होटल लिया| कुछ देर तक पढने के बाद शाम को कमरे में मैं और रिक्की देश के कुछ ज्वलंत मुद्दों पर शालीनता से डिस्कशन कर रहे थे ताकी कुछ मनोरंजन हो जाए| उस वक्त आलम चुपचाप बैठा था, जब हमदोनों ने असहिष्णुता-संप्रदायिकता का जिक्र किया तो वो एकाएक बरस पड़ा| कहने लगा “अगर देश के साथ कोई मुसलमान गद्दारी करता है तो सबसे पहले उसे वह गोली मारेगा और साथ ही आमिर जैसे लोगों की जमकर आलोचना की| उसने कहा “कभी किसी राजनीतिक दल ने या किसी धर्मगुरुओं ने उससे कभी पूछने की जहमत क्यूँ नहीं उठाई की की वास्तव में वो चाहता क्या है? उसकी तकलीफ क्या है? कौन होते हैं ये लोग जिनकी एक बयान से सारे सेक्युलर हाय-तौबा करने लगे? बहुत ऐसे हैं जो खाते भारत का हैं और गाते पाक का हैं? हमें सुविधाएँ पाक सरकार तो नहीं देती? फिल्म बनाना है तो भारत आना है, गायक बनना है तो भारत आना है, हीरो-हेरोइन बनना है तो भारत आना है, सामान बेचना है तो भारत आना है, बम फोड़ना है तो भारत आना है| तो क्या सिर्फ बम बनाने के लिए देश का बंटवारा किया था?   कभी आकर देखा है हमारे इलाकों की सहिष्णुता को की भेदभाव किसे कहते हैं? बता रहा था की उसके इलाके में मुस्लिम महिलायें बुर्के पहनकर हिन्दुओं के घर शादी-पार्टी में जाया करती है, इसे मीडिया क्यों नहीं दिखता? खुले विचारों वाला आलम अपने इस्लाम से जितनी मोहब्बत करता है, उतना ही वो दुसरे धर्मों की इज्जत भी करता है और अजब-गजब धार्मिक पाबंदियों की मुखर आलोचना भी| इलाहाबाद में ही वे हम सभी के साथ संगम स्नान के लिए तैयार था लेकिन वक्त की कमी के कारण जा नहीं पाए| वापस लौटते समय ट्रेन की खचाखच भीड़ में भी वो हमलोगों के साथ संगम पुल से गुजरते वक्त माँ-गंगा को प्रणाम किया और उसने महाकुम्भ में इलाहाबाद आने की इच्छा दिखाई| उसके तौर-तरीकों से तो हम सभी लोग हैरान थे| इसे कहते हैं सेकुलरिज्म! प्रधानमंत्री जी कहते हैं ना की अलवर के इमरान में बसता हैं मेरा भारत; वैसे ही मैं कह सकता हूँ की पटना के आलम में बसता है मेरा हिंदुस्तान, पटना के आलम का है यह हिंदुस्तान|

फिर भी इनसब से अलग वापस लौटते हुए ट्रेन में लगभग पन्द्रह-बीस हजार परीक्षार्थियों की उबाऊ भीड़ साँस लेने में तकलीफ दे रही थी| ट्रेन को आये कुछ ही देर हुआ था की स्टेशन पर एक दम्पति मेरे ही बोगी में चढ़ा| महिला सम्मान के तकाजे से एक लड़के ने उनके लिए सीट छोड़ दिया| भीड़ इतनी थी की आजतक मैंने खड़े-खड़े भी ऐसी यात्रा नहीं की| किसी को पैर हिलाने के पहले सोचना पड़ता था, बैठना दूर की बात थी| दोनों को वाराणसी में उतरना था, सो ट्रेन चल पड़ी| वे शख्स मेरे ही पास थोड़ी सी जगह बनाकर खड़े थे| दोस्तों के साथ हो रही डिस्कशन में वे दोनों पति-पत्नी शामिल हो गए| मैंने लगभग दो घंटे तक उस शख्स से काफी बातचीत की| उन दोनों का कम्युनिकेशन स्किल बेहद उच्च क्वालिटी का था| मुझे एहसास हो रहा था की ये बिल्कुल प्रोफेशनल हैं| तभी मैंने पूछ दिया की आप करते क्या हैं? पहले तो हंसे, फिर बताया की वे बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (BHU) के सिक्यूरिटी एडवाईजर हैं और वो इसी प्रतियोगिता परीक्षा के सिलसिले में आब्जर्वर बनकर वहां आये थे| ये सुनकर बोगी के सारे लड़के उनका मुंह देखने लगे तभी मैंने सवाल किया की आप इतने सक्षम होने के बावजूद भी जनरल बोगी में खड़े-खड़े यात्रा कर हैं? चाहते तो तत्काल टिकट ले सकते थे? फिर उन्होंने मुझे बताया की जब वो दिल्ली, गाजियाबाद या मेरठ जाते हैं तो ऐसी ही भीड़ का सामना करने को मजबूर हो जाते हैं और उनका शरीर मुश्किलें झेलने को आदि है इसलिए वे जिन्दगी में हर मुश्किल से आसानी से लड़ लेते हैं| और भी काफी बातें हुई जिसे लिखना संभव नहीं, अंततः वाराणसी में हाथ मिलकर वे उतर गए और मैं खड़े-खड़े 12 घंटे का सफ़र तय करके पटना पहुँचा तब तक सुबह हो चुकी थी...

अविश्मरनीय बात रही की पहले आलम के साथ और अब इन दोनों के साथ खासकर एक बात कॉमन थी की दोनों इस्लाम को मानने वाले थे| मेरी ब्लॉगर यात्रा में सेकुलरिज्म के साथ ये मेरा पहला साक्षात्कार था| क्यूंकि आलम में देशभक्ति का जज्बा दिखा क्योंकि उसकी भैया सेना में थे और वे दम्पति बेधड़क सामाजिक-धार्मिक बुराइयों की अज्ञानता को मिटाने के लिए प्रतिबद्ध थे| ख़ास बात रही की वे महिला मुझे अपने बेटे की उम्र से तुलना करके अपने पास थोड़ी जगह में बिठाया और अपनी बेटे-बेटियों की शैक्षणिक स्थिति की चर्चा की| इस तरह इस यात्रा से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला, धार्मिक बेड़ियों में जकड़ी हुई मानवीय आजादी को पाने की ललक देखी, उनका गुस्सा देखा और उनकी धर्मपरायणता भी देखने को मिली| इसलिए, कुल मिलाकर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ की हमारा भारत सेक्युलर है, आधुनिक है और लिबरल भी है| बस इंसानियत के गद्दरों से नागरिकता का अवार्ड छिना जाना बाकी है...(फिर भी ऐसा हो नहीं सकता, हम जानते हैं...)


लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... आते रहिएगा...

05 December 2015

वेतन आयोग से गरीबों को क्या फायदा?

सातवां वेतन आयोग सरकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्ते को 24 फीसदी तक बढाने की सिफारिश सरकार से कर चुकी है| इस समय भारत सरकार में लगभग 40 लाख कर्मचारी सेवारत हैं, जबकि 58 लाख पेंशनभोगी बेमतलब सरकार का खजाना खाली कर रहे हैं| यानी अगर आयोग की सिफारिशों को जस का तस लागू कर दिया जाए तो देश पर एक लाख करोड़ रूपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा| लगभग एक करोड़ लोगों की वेतन वृद्धि योजना पर लगता नहीं है की मोदी सरकार उन्हें नाराज करने का जोखिम ले पाएगी| क्योंकि किसी भी सरकार के लिए सबसे जरूरी चीज होती है, सत्ता में बने रहना| मोदी सरकार अपनी घटती लोकप्रियता के धारे में वेतन आयोग नहीं मानने जैसा बवंडर शामिल नहीं कर सकती| यह उसकी मजबूरी है, लेकिन क्या ऐसी सिफारिशें भारत की आर्थिकी में पंख लगा देगी या उसके पर कतर के मंदी को न्योता देगी? जाहिर बात है की देश पर एकाएक एक लाख करोड़ रुपये का बोझ मुद्रास्फीति, मंदी और महंगाई बढाने का कारण बन सकती है|

वेतन वृद्धि का पैमाना परफॉरमेंस के आधार पर बने| प्राइवेट सेक्टर की तरह, जितना काम-उतना पैसा| लेकिन यहाँ काम करने वाले भी और न करने वाले भी दोनों की वेतन में वृद्धि कर दी जाती है| सातवाँ वेतन आयोग बिना किसी शर्त या फेरबदल के लागू कर दी गयी तो सरकारी कर्मचारी, प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले लोगों को मुंह नहीं चिढ़ाएंगे? बेशक, उनकी कुंठा बढेगी, जब किसी को बिना काम किये वेतन मिलेंगे! ऐसे में जनता का पैसा बेवजह कामचोर कर्मचारियों पर खर्च करना मुर्खता ही है|

लेकिन भारत के उन 30 करोड़ गरीबों की चिंता किसे है? उनका क्या होगा, जिनकी 29 रुपये की दैनिक क्रय शक्ति से चुकाए गए उनके टैक्सों से नौकरशाह 2.50 लाख का वेतन पायेंगे? रिटायर होने पर भी कर्मचारियों को भारत में जितनी सुविधाएँ मुहैया कराई जाती है, उतनी दुनिया के किसी देश में नहीं मिलती| क्या अबतक हमारी सरकारों ने गरीबी, महंगाई से लड़ने के लिए बयानों और योजनाओं के अतिरिक्त कुछ किया है? कभी गरीबी उन्मूलन के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता नहीं दिखी| उसे वेतन आयोग के जैसे ही किसान आयोग का भी गठन करना देश के लिए फायदेमंद होता| फिर भी जो है उसमें सुधार की गुंजाइश है| देश है, संसद है, क़ानून है और व्यवस्था भी है| लेकिन गरीबों के लिए नहीं! ये बातें वेतन आयोग के सन्दर्भ में लागू भी होती है|

गरीबों की कोई नहीं सुनता! अगर कोई सुनता तो उसे भी खाद्ध सब्सिडी, वृद्धावस्था पेंशन, छात्रवृति जैसी योजनाओं में वृद्धि की भी सिफारिशें होती| फिर हंगामा मचता और आर्थिक बोझ का हवाला देकर सिफारिश रद्द कर दी जाती!  सरकार हर महीने देश के गरीब बुजुर्गों को 400रु० का पेंशन देती है, जब कर्मचारियों के लिए महंगाई बढ़ रही है तो देश के अन्य लोगों के लिए क्यूँ नहीं? मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी क्यूँ नहीं बढती है? अनाज का न्यूनतम समर्थन मूल्य स्थिर करके किसानों को खेती छोड़ने पर मजबूर क्यूँ कर रही है? अक्सर हमारे देश की सरकार राजकोषीय घाटे का रोना रोती है| कहती है, खर्च बढ़ रहे हैं| लेकिन कभी उसने अपने लापरवाह और जिम्मेदार अफसरों की ठाठ-बाट या उसकी फिजूलखर्ची देखी है? सरकारी आयोजनों में 100रु प्रति प्लेट का खाना वो 400 रु/प्लेट खरीद कर लाते हैं, लाखों रूपये किराए वाले एसी होटलों में घंटे भर की मीटिंग कराते हैं उसका क्या? किसी महापुरुष की जयंती पर दिखावटी सम्मान जताने के लिए पूरे देश के सरकारी दफ्तरों में फिजूल खर्चे करके जनता का करोड़ों रुपये यूँ ही फूंक डालते हैं| इनसब पर कभी सोचा है हमारी सरकारों ने? फिर भी सब कुछ देखते हुए भी आँख बंद कर लेना उनकी राजनीतिक मजबूरी है!

मेरे कहने का कतई ये मतलब नहीं है की कर्मचारियों की वेतन में वृद्धि नहीं हो| हो पर परफॉरमेंस के आधार पर, काम के आधार पर, सामाजिक न्याय और समानता की शपथ को याद करते हुए| समानता का मतलब यह नहीं होता की देश में एक व्यक्ति को 2.50 लाख हर महीने मिले तो एक ओर 30 करोड़ की आबादी भूखे रहने को मजबूर हो, खुले में शौच करने को मजबूर हो|  इसलिए मोदी सरकार ये मान कर न चले की उनका हर फैसला उनके 19 करोड़ वोटर सर-आँखों पर लेंगे क्योंकि कांग्रेस के उत्पात से समूचा देश खदबदाया हुआ था| उसी के क्रोध ने मोदी की राजगद्दी पर पर बैठने का योग बनाया| सरकार हर सिफारिशों को आँख-मूंदकर मानने के बजाए उसे अच्छी तरह ठोक-बजाकर राष्ट्रहित सुनिश्चित करे इसी में देश की भलाई है...

लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता
है’(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... आते रहिएगा...