हम मानव भले ही अपने को
कितना भी बुध्दिमान समझें, सभी
प्राणियों में सबसे समझदार समझे,
पर हकीकत में ऐसा कुछ है नहीं। 16वी शताब्दी में औधोगिक क्रांति की शरुआत हुई। नई-नई आविष्कारों को
ईजाद किया गया और वहां से प्राकृतिक सम्पदा का दोहन प्रारम्भ हो गया। इस दौरान
मनुष्य ने मानव-जीवन को सहूलियत देने वाले ढेरों उपकरण बनाये, लेकिन इसी बीच हमने कुछ ऐसे
अविष्कार कर दिए, जिसके
कारण आज भी समूचा विश्व डर के साये में जी रहा होता है। हिरोशिमा और नागासाकी की
विनाशलीला देखकर पूरी दुनिया थर्रा गयी थी, लेकिन अब तो उससे सौ गुना ज्यादा तबाही ज्यादा तबाही मचाने वाले बमों
को अस्तित्व में ले आया गया है। प्राकृतिक सम्पदा का अंधाधुन दोहन, मानव प्रजाति को संकट के
कगार पर ले जा चुकी है। प्रकृति ने हमें इतना कुछ दिया हवा, पानी, पेड़-पौधे, पहाड़ आदि। लेकिन हमने क्या
किया? उसे
बर्बाद करने की कोई कसर नहीं छोड़ी। हम नदियों में बाँध बनाकर उसकी पानी को रोक
लेते हैं। जनसँख्या वृद्धि का हवाला देकर अंधाधुन तरीके से जंगलों को नष्ट कर रहे
हैं। पृथ्वी के गर्भ के भीतर से कोयले, तेल निकालकर उसे व्यापर का माध्यम बना दिया हैं हमने। पहाड़ों को
तोड़कर सड़कें बिछाई जाती है, आलिशान
इमारतें तैयार की जाती है। नतीजा क्या होता है? पृथ्वी के प्लेटों में असंतुलन पैदा होता है और
हमें झेलना पड़ता है, भूकम्प!
अकेले अमेरिका के 95%
घरों में एयर कंडीशन लगा है, जिससे निकलने वाली खतरनाक गैसें ओज़ोन परत के छिद्र को दिन-प्रतिदिन
बड़ा करते जा रहा है। अंटार्कटिका क्षेत्र के बर्फ इस छिद्र कारण जितनी तेजी से
पिघल रही है, शायद कुछ
वर्षों में समुद्र किनारी बसे शहरों को नक़्शे पर ढूँढना मुश्किल हो जाएगा।
अमेरिका व चीन दुनिया के सवार्धिक कार्बन-डाई-ऑक्साइड उत्सर्जक देशों में से एक है, फिर भी पर्यावरण के प्रति
उनकी शिथिलता दुनियाभर के पर्यावरण शुभचिंतकों को बेचैन कर रहा है। पर्यावरण
सम्मलेन करके चिंता जताने व उनमें दुनिया के देशों को प्रवचन झाड़ने से कुछ नहीं
होने वाला। अमेरिका व चीन, जिनका
पृथ्वी के पारिस्थितिक संतुलन को बर्बाद करने का एक हद तक श्रेय जाता है वो आए दिन
अपनी दादागिरी से दुनिया को रु-ब-रु कराते रहते हैं।
मानव की मूर्खता पर प्रकृति भी हंसकर कहती होगी "ओ आलसी
मानव, याद कर
जब घनघोर घटा में बारिश लेकर मैं आता था.…पशु-पक्षी सब नाचकर तुम्हारे मन को बहलाता था.… खेतों में हरियाली तुम्हारे
मन को कितना भाता था... पर,
तुम जो ठहरे मुर्ख ,
प्रकृति को समझा बच्चा था... बंज़र देखकर अपनी जमीन, पानी को क्यों तरसते हो… लाओ अपनी
विज्ञानं को जिस पर नाज़ करते हो....
परस्थितिकी को बिगाड़ने का दंड मानव को मिलनी भी शुरू हो गई है। बादल
रूठ गया है, सूरज हमें
तपा रहा है, नित्य
नई-नई बीमारियां जन्म ले रही है,
वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी हो रही है
और उनकी कृत्रिम बारिश की तकनीक भी असफल हो रही है । क्या होगा जब ये
अपनी पराकाष्ठा तक पहुंचेगी? रोम-रोम कांप जाता है। सब
मिलकर बना डालिये पृथ्वी को जंगल मुक्त, निकल डालिये सारे खनिज, तोड़ डालिये सारे पहाड़। तब तो ये वैज्ञानिक 3D अनाज की व्यवस्था कर ही
लेंगे। डिजिटल रोटी का अविष्कार ढूंढ ही लेंगे और शायद कहीं न ये इलेक्ट्रॉनिक पेट
की भी व्यवस्था कर लें ताकि खाने की जरूरत ही न पड़े। बस 10 सेकंड में पेट भर गया.…
लेखक :- अश्वनी कुमार, जो पर्यावरण के महत्व को अभी भी उतने बेहतर ढंग से नहीं जानता।
क्योंकि जबतक आप वो चीज खो न दें,
जो आपके पास है तबतक ये एहसास नही होता की उसके पास क्या था....
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