01 September 2015

आज के युग में शिक्षकों की प्रासंगिकता

हम सभी प्रत्येक वर्ष 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। इस दौरान हमें अपने शिक्षकों को करीब से जानने का अवसर मिलता है। शिक्षक बाहर से जितने अक्खड़ व सख्त होते हैं, अंदर से उनका हृदय उतना ही कोमल और उदार होता हैं। हम सभी जानते हैं की शिक्षक दिवस के जनक 'डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन' ने शिक्षकों के प्रति सम्मान जताने के लिए अपने जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया। डॉ० राधाकृष्णन पहले ऐसे व्यक्ति थे, जो गैर-राजनीतिज्ञ होने के बावजूद भी देश के पहले उपराष्ट्रपति बने और बाद में राष्ट्रपति। राष्ट्रपति बनने के बाद भी उनकी सादगी आज के लोगों के लिए एक प्रेरणा है।  शिक्षक दिवस के मौके पर बहुत सारे स्कूल,कॉलेजों और कोचिंग संस्थानों में लोग शिक्षकों व उनकी महता के बारे में बातें करते हैं। पर हाँ,बहुत सारे तो नहीं लेकिन कई ऐसे लोग हैं जिनकी देश की गिरती शिक्षा व्यवस्था, शिक्षा का बाज़ारीकरण इत्यादि पर चर्चा जायज लगती है।                                                                                 

जीवन में माता-पिता का स्थान कभी कोई नहीं ले सकता, क्योकि वे ही हमें इस रंगीन-खूबसूरत दुनिया में लाते हैं। उनका ऋण हम किसी भी रूप में नहीं उतार सकते। लेकिन जिस समाज में हम रहते है, उसमे रहने लायक इंसान तो हमें शिक्षक ही बनाते हैं। बेशक, बच्चों की पहली पाठशाला उनका परिवार होता है, पर वे तो कच्चे घड़े की भाँति होते हैं। उनकी मानसिकता बिलकुल वैसी हो जाती है, जैसा वे अपने आसपास के माहौल में देखते हैं। सफल जीवन के लिए शिक्षा तो अनिवार्य है ही पर शिक्षा देने वाले शिक्षक को तो भगवान से भी बढ़कर माना गया है। परन्तु न तो आज शिक्षकों में वो बात रही, न आज के छात्र ही वैसे रहे। आज शिक्षकों को वो सम्मान, आदर, प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है. जैसा पहले के शिक्षकों को प्राप्त था। नतीजा, गुरु-शिष्य परम्परा ही ख़त्म होने के कगार पर है।  गुरु-शिष्य परम्परा भारत की संस्कृति का एक अहम हिस्सा है, जिसके कई सुनहरे उदाहरण हमारे इतिहास में दर्ज़ है। लेकिन वर्तमान समय में कई ऐसे लोग हैं जो अपने अनैतिक कारनामों व लालची स्वभाव से इस परम्परा पर गहरा आघात कर रहे हैं।

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                                                      हम अगर भारत के अतीत में जाकर द्रोणाचार्य-एकलव्य जैसी गुरु-शिष्य संबंधों को देखें तो हमें खुद पर शर्म आती है। 'शिक्षा'  जिसे अब व्यापार समझ कर बेचा जाने लगा है, उसी परम्परा की नींव पर चाणक्य-चन्द्रगुप्त जैसे महापुरुषों का आस्तित्व है। हर कोई ज्ञान की बोली लगाने में जुट चुका है. आखिर शिक्षक करें भी तो क्या? आज के बदलते परिवेश में जहाँ सब-कुछ बदल रहा है, हमारी परम्पराएँ बदल रहीं हैं, सोच बदल गए हैं, ऐसे में तो निश्चित रूप से सबकुछ बदलेगा ही। आखिर आधुनिक जो हो गए हैं हम !  अंब हमारी पढाई ऑनलाइन होती है, आगे आनेवाली पीढ़ियां शिक्षक की जगह रोबोट से पढाई जायेगी। सभ्यता-संस्कृति से किसी को क्या मतलब, क्योकि 'भारत' को डिजिटल करके 'इंडिया' जो बना डालना है। सवाल है, फिर शिक्षकों का महत्व और उनके  आस्तित्व को बचाने के लिए क्या कदम उठाये जाएंगे? या उनकी भी स्वच्छ भारत अभियान में कहीं सफाई न कर दी जाए !  भारत की शिक्षा व्यवस्था पहले से ही नौकरी आधारित शिक्षा व्यवस्था है। सन 1835 में इंडियन एजुकेशन सिस्टम की ड्राफ्टिंग करने वाले 'लार्ड मैकॉले' ने भारत की शिक्षा व्यवस्था ऐसी कर दी की आज भारत ने पढ़े-लिखे बेरोज़गारों की एक बड़ी फ़ौज तैयार कर ली है , अब 500 पद के लिए 30 लाख फॉर्म भरे जाते हैं। लेकिन इसका पिछले 65 सालों से अनुसरण कराने वाले तो अपने हैं। नतीजा, 10 साल अंग्रेजी सिखने में बर्बाद करो, फिर पूरी जवानी इतिहास-भूगोल याद करने में। फिर भी इसकी कोई गारंटी नहीं की आप सर्विसमैन कहलाओ, हाँ अगर आप के पास पैसे न हो तो!  उच्च शिक्षा के लिए पैसों और अंकों का गणित बड़े-बड़े विद्वान भी नहीं समझ पाते। DU, JNU जैसे अच्छे कॉलेजों में दाखिला लेने के लिए 98-99 फीसदी को प्रतिभा का पैमाना बनाया जाता है। लेकिन जिनके पास पैसे नहीं उनका यानी देश का भविष्य तथाकथित 'खिचड़ीघरों' में पढता है, ऐसी दोहरी नीति क्यों? ऐसे में क्या उसके अंकों की अमीरों के बच्चों के अंकों से कोई तुलना की जा सकती है? सोच कर डर लगता है की उन बच्चों पर क्या गुजरती होगी, जिनके 50 से 60 फीसदी अंक आते हैं। वो DU, JNU तो क्या, शहर के अच्छे कॉलेजों में भी नहीं पढ़ सकता। अगर सरकार सभी कॉलेजों को DU, JNU जैसी नहीं बना सकती तो कॉलेज खोल ही क्यों रखा है? वैसे कॉलेज हैं ही क्यों जो अच्छे नहीं है?                                                       

आज के शिक्षक व शिक्षा का बाज़ारीकरण केवल धन कमाने का एक जरिया बनकर रह गए हैं। शिक्षक जिस पर इस देश के भविष्य को सँवारने की जिम्मेवारी होती है, वह पैसों के लालच में अपनी जिम्मेवारी भूल बैठा है। ये सब किसकी उदासीनता से भुगता जा रहा है? सरकार की, समाज की, या हम सभी की?
जो भी हो, लेकिन शिक्षक अगर चाह ले तो चन्द्रगुप्त जैसे शिष्य को महान बना सकता है और नन्द वंश का नाश भी कर सकता है। लेकिन हाँ, गुरु भी चाणक्य जैसा होना चाहिए। परन्तु आज के इस डिजिटल युग में न कोई गुरु चाणक्य बन सकता है और न ही चन्द्रगुप्त जैसा शिष्य गढ़ सकता है.....
लेखक:-  अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर 'कहने का मन करता है…'(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं.…   पेज पर आते रहिएगा….
                              

                                             



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