अजाशत्रु और उदायिन की नींव
पर खड़ा व सम्राट अशोक द्वारा सिंचित हमारे पाटलिपुत्र का भारत के गौरवशाली अतीत
में एक अहम हिस्सा है। गुरु गोविन्द साहिब की जन्मस्थली और किनारे पर बहती गंगा
उसकी महानता व प्राचीनता का जीवंत उदाहरण है। वर्तमान में पटना की गिनती भारत के
सबसे प्राचीनतम शहरों में होती है। लेकिन क्या बदलते वक्त में हमारा शहर उन शहरों
की भांति आधुनिक हो पाया, जिसका
वजूद पाटलिपुत्र के आसपास भी नहीं टिकता! पटना बिहार की राजधानी है। वह बिहार
जिसका स्थान कुपोषण, अशिक्षा, गरीबी, शिशु मृत्यु-मातृत्व मृत्यु
दर, बेरोजगारी
व सामंतशाही में सबसे ऊपर
है। इसमें बिहार का कोई दोष नहीं,
यहाँ की जनता भी इनसब के लिए गुनहगार नहीं है। गुनहगार तो वे लोग है, जिनकी दोहरी नीतियों से आज
राज्य की औसत आय राष्ट्रीय आय का मात्र 40% है। यहाँ का जनसँख्या घनत्व राष्ट्रीय घनत्व से चार गुना अधिक है।
बिहार के पिछड़ेपन व विकास के खोखले दावों पर भौं तब तन जाती है, जब इसकी राजधानी में
रोजमर्रा की जिंदगी बिताने वाले लोगों के लिए कचरा, नाला, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव देखा जाता है।
जब देश के दूसरे शहरों में मेट्रो शान से फर्राटे भर रही है जिसका
अतीत पाटलिपुत्र के आसपास भी नहीं फटकता, वहीँ यहाँ लोगों की जिंदगियाँ गंदे-पानी और कचरे-नाली के इर्द-गिर्द
घूम रही है। राजधानी का अपना एक नगर निगम भी है 'पटना नगर निगम' जो कई अंचलों में भी बंटा है, लेकिन सारे काम सुचारू रूप से हो तथा वह लोगों को उनकी समस्याओं से
निजात बिना सड़क बंद किये, प्रदर्शन
किये दिला दे ऐसा होने की हम सोच भी नहीं सकते। पटना नगर निगम लोगों से सालाना
भिन्न-भिन्न प्रकार के टैक्स वसूलती है, किसलिए? लोगों को
समस्याओं से निजात दिलाने के लिए। लेकिन क्या निगम के पार्षद या अधिकारी शहर
के लोगों को ये बता सकते हैं की निगम की कितनी बैठकें बिना हंगामे की हुई? कितने प्रस्ताव बिना विरोध
के पास हुए? आखिर ये
सब कैसे संभव हो सकता है?
जब देश की संसद में प्रतिनिधियों को जनता से ज्यादा अपनी कुर्सी तथा
पार्टी का मोह होता है, जिसके
लिए वे लोकतंत्र के नाम पर ही उसकी हत्या करने का प्रयास करते हैं। ऐसे में 'मुनिसिप्लिटी' की राजनीति कैसे अछूती रह
सकती है? समाज में
देखें तो घर में ही छोटे बच्चे स्वाभाविक रूप से अपने बड़े का अनुसरण करने लगते
हैं। बिडम्बना ये है की निगम में हमेशा मेयर बनने की आकांक्षा शहर के विकास पर
हावी हो जाती है। हम सभी ने मेयर और आयुक्त के बीच टकराव को देखा है। एक
दूसरे से श्रेष्ठ बनने की महत्वकांक्षा में दोनों ने ही बरसात के दिनों में भी शहर
को अपने हाल पर नरक बनाकर छोड़ दिया था। ऐसे में तो पटना के राजधानी होने पर भी
सवालिया निशान लग जाते हैं।
शहरों में सड़कों के दोनों तरफ ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों व विश्वस्तरीय
म्यूज़ियम बना देने से इसे राजधानी तो कहा जा सकता है, लेकिन उसके अंदर बसे गलियों
की आबादी 'लंदन' से कम नहीं है और उनकी
समस्याएँ भी भूखे-नंगे देश के नागरिकों जैसी ही है। कह सकते हैं, दिखाने के दांत कुछ और होते
हैं खाने के कुछ और.… समझ गए
न.… सोचिएगा....
लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर 'कहने का
मन करता है... (ashwani4u.blogspot.com)
के लेखक हैं।
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