अभी कुछ दिन पहले
सीबीएसई बोर्ड की दसवीं एवं बारहवी का रिजल्ट आया| सीबीएसई बोर्ड में पढ़ने वाले
इलीट क्लास अभिभावक बच्चे का 96% अंक लाने के बावजूद खुश नही होते क्योंकि किसी मिश्रा
जी या तिवारी जी के बेटे/बेटी का उससे ज्यादा आ गया या तो उसका एडमिशन दिल्ली
यूनिवर्सिटी, जेएनयू जैसे कॉलेजों में नही होगा! अंग्रेजियत व्यवस्था में पनपती
स्कूलों की मनमानी एवं सीबीएसई की अंक आधारित परीक्षा व्यवस्था देश की शिक्षा
प्रणाली की जड़ें खोद रही है| भले ही सरकार और आधुनिकता के चक्कर में अभिभावक,
बच्चों के मन-मष्तिष्क में अंग्रेजियत घुसेड़कर अंग्रेजी शिक्षा मुहैया कराने को
उतारू है मगर ये भारतीय भाषा एवं भारतीय संस्कारों का एक दिन नैतिक पतन अवश्य
करेगा|
अंक आधारित शिक्षा
व्यवस्था जिस तरह से देश में फैलती चली जा रही है वहां बौद्धिक प्रतिस्पर्धा की
जगह जाहिलियत और नाकारापन ले लेगी इसमें कोई शक नहीं! बच्चों के बीच श्रेष्ठता का
पैमाना बौद्धिकता के बजाए अंक बन चूका है| अभिभावकों को लुटने की होड़ में हमारे
स्कूल भविष्य का एक ऐसा बड़ा फ़ौज तैयार कर रही है जो बेरोजगारी के आंकड़ें में या तो
उलझकर रह जायेगा या किसी पार्टी के झंडे ढोने लायक बचेगा!
सोचकर डर लगता है की
एक तरफ बच्चे 96 फीसदी अंक लाने के बावजूद खुश नहीं होते तो सोचिये उन पर क्या
गुजरती होगी जिन्हें 45 फीसदी अंक भी नसीब नहीं! उसे दिल्ली यूनिवर्सिटी या जेएनयू
तो क्या उसे शहर का औसत कॉलेज में भी दाखिला नहीं मिलेगा!
संगठित तौर पर
शिक्षा प्रणाली के प्रति सरकार की उदासीनता भविष्य के बड़े खतरे को आमंत्रण है!
एक
बड़ी होती ऐसी आबादी जिसका भारतीय समाज, भारतीय संस्कार एवं संस्कृति से कान्वेंट
स्कूलों ने पूर्णतः डोर काट दी है तो सोचिये ये आबादी भविष्य में भारत की
सांस्कृतिक एवं सामाजिक तानेबाने को कैसे नष्ट करके रख देगी!
ये इस दृष्टिकोण से
भी लगता है की जिस बच्चे के माता-पिता ही नाईट डांस क्लब, किट्टी पार्टी या
ड्रिंक्स पार्टी में थिरकने जाए वो अपने भविष्य (बच्चे) को संस्कार एवं समाज का
मूल्य क्या समझायेंगे?
कान्वेंट स्कूलों को क्या दोष देना जिनका मकसद ही चैरिटी के
नाम पर धर्म-विस्तार है! वो अपनी संस्कृति, अपनी भाषा हम पर क्यूँ न थोपे जब हमलोग
ही आधुनिकता की भेड़चाल चलने को उतावले हैं!
स्कूलों की मनमानी
संगठित भ्रष्टाचार की ऐशागाह है! राजनेताओं की चुप्पी इस डकैती पर मौन स्वीकृति
है!
स्कूल कहती है, जूते
एडीडास या फलाने कंपनी का पहनना होगा! अभिभावक खुलकर विरोध क्यूँ नही करता!
उसका
बच्चा एडीडास का जूता पहनने से उसैन बोल्ट तो नही ही बनेगा या स्कूल से खरीदी किताब/कॉपी
से पढ़कर न्यूटन-आइन्स्टीन भी तो पक्का नहीं पैदा होगा!
बैग में 20 किताब
टांगकर, टिफिन में मैगी लेकर स्टार बस से बच्चे को स्कूल भेजने वाला इलीट क्लास या
मिडिल क्लास ये न समझे की उसका बेटा कोई बड़ा नैतिक मूल्यों वाला इंसान बनकर उसकी
सेवा करेगा!
वो एक ऐसे प्रदूषित वातावरण एवं रहन-सहन में रचा-बसा है जहाँ उसे दुःख
तकलीफ या आर्थिक बदहाली से सामना नहीं हो रहा, बल्कि चारों और टीवी-फिल्मों के ग्लैमर
के चकाचौंध में मतलबी इंसान बन रहा!
अपने बच्चे को मॉडर्न
बनाने के चक्कर में भारतीयता से परिचय कराना पिछड़ापन लगता है उन्हीं अभिभावकों को संस्कारों
का मोल तब समझ आता जब बच्चे वृद्धाआश्रम का पता इन्टरनेट पर ढूंढने लगते हैं!
इसलिए इस शिक्षा
प्रणाली में बच्चों का सब कुछ लुटेरे स्कूलों पर छोड़ने के बजाए संस्कार, संस्कृति
तथा मातृभाषा से परिचय कराते रहिये, नहीं तो ये सिस्टम, ये स्कूल अंग्रेजी बकने
वाला गदहा बनाकर रख देगा...
© अश्वनी