अक्सर हमें एक सवाल परेशान करती है की हम क्रांतिकारी किसे कहें? उसे
जो हथियार के दम पर गुलाम बनाने वालों को हथियार से ही दमन करता हो या उसे जिसने शांति
से निहथ्थी भीड़ को आगे खड़ी करके गोलियां खिलवाई और दुश्मन की मलाई चाटते रहे| या
उसे जो कई दशकों तक जेल की काल कोठारी में बंद रहकर देशप्रेम की पंक्तियाँ लिखी, कायरता
को अपनी निडरता से हराया या यूँ कहें की पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर किया| भारत
वर्ष के इतिहास में हजारों क्रांतिकारी हुए जिन्हें ब्रिटिश हुकूमत न तो बंदूक से
झुका पायी और न ही बाइबिल से| इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को जैसे को तैसा पाठ
पढ़ाकर नाकों दम कर रखा था| इन वीर सपूतों में सबसे पहला नाम वीर सावरकर का आता है|
अंडमान के सेलुलर जेल में काले पानी की सजा काटना जीते-जी मर जाने जैसा है, फिर भी
वे अंग्रेजों से देश को मुक्त करा डालने की प्रतिबद्धता नहीं छोड़ पाए| आज तो दो
चाटें लगते ही लोग सब उगल देते हैं| शहीद भगत सिंह,
राजगुरु, बोस, चन्द्रशेखर आजाद, जतिन दास, उद्धम सिंह जैसे क्रांतिकारी भले ही आज किताबों
में गाँधी-नेहरु की तरह जगह नहीं बना पाए लेकिन, उनकी वीर गाथाएं आज भी देशप्रेम
और राष्ट्रभक्ति की एक नई उन्माद पैदा कर देती है, जोश भर देती है| देश के लिए मर
मिटना सिखाती है, गांधी और नेहरु से कई गुना ज्यादा|
भारत में पिछले 3-4 सालों में कई तथाकथित क्रांतिकारी पूर्णिमा की
चाँद की तरह चमके और धीरे-धीरे कटते चले गए| इन क्रांतिकारियों ने गरीबी,
बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से देश को मुक्त कराने की अहिंसक कोशिश की| लेकिन बदले
में उन्हें लाठियां मिली, जबरदस्ती अनशन तुडवा दिया गया, विरोध करने वालों को जेल
में डाल दिया गया| और नतीजा ये हुआ की सत्ता की गर्मी से ये सारे क्रांति के पुतले
मोम की तरह पिघल गए| इसी से सवाल खड़ा होता है की जब हमारी खुद की सरकार अनशन और
अहिंसा से एक मनमाफिक जनलोकपाल तक नहीं दे पायी तो सोंचें पहले अहिंसा का कैसा
कत्लेआम किया जाता होगा?
राष्ट्रवाद-देशप्रेम का पिटवां लोहे की तरह क्रांतिकारी
पैदा तो हो रहे हैं, लेकिन देश का माहौल उन्हें राजनीति,लुट-खंसोंट के एक ऐसे ऐशागाह
से गुजारती है की वो अपने विचार इसके मोह में बड़ा होते-होते मोम का बना डालता है| इनसब से बचकर
गरीबी-भुखमरी से आजाद कराने के लिए एक क्रांतिकारी जैसे ही पनपता है वैसे ही देश
को लूट रहे अलग-अलग म्यानों में एक सी धार वाली विचारधारा उसपर टूट पड़ती है और
अस्तित्व तक ख़त्म कर देती है|
इसलिए मैंने कहा की क्रांतिकारी बनना इतना आसान कैसे है,
जिन नेताओं को एक दिन ऐशो-आराम वाले जेल में रहले मात्र से तबियत ख़राब होने लगती
है? काला पानी तो दूर इन्हें दिहारी मजदूरों के घरों में रख देना उससे भी बड़ी सजा
होगी... अपनी ही बनाई नीतियों में घुटकर जियेंगे... तब पता चलेगा की भारत राष्ट्रराज्य की
बनावट को संविधान के माध्यम से मनमाना बदलना कितना भारी पड़ता है...
लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा...