17 June 2019

भारत के श्रमिक


भारत जैसे विकासशील देश के अंदर गरीबी शब्द एक ऐसी परिकल्पना को जन्म देती है की जिसमें भुखमरी, कुपोषण, बीमारी, अपंगता, अशिक्षा जैसे हजारों भयावह तस्वीरें जीवंत हो उठती है | आजादी के बाद एक नए भारतवर्ष को गढ़ने की कल्पना की गई, जिसमें गरीबी और गरीबों के बारे में गंभीरता से विमर्श किया गया | तमाम कानून बनाए गए, नियम तय किए गए मगर फिर भी गरीबी-भुखमरी से बिलबिलाते एक बड़े वर्ग के लिए समानता की परिभाषा तय करने में सामाजिक सुरक्षा क़ानूनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है |

आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहें हैं जहां की चकाचौंध में हम आधुनिकता और विकासवाद के चक्रव्यूह में उलझे पड़े हैं | सारी दुनिया रंगीन और खुशहाल दिखती है मगर उसी धरती के किसी हिस्से में आज भी गरीबी और भुखमरी का डंका बज रहा है | बच्चे भूखे बिलबिला रहें हैं, तन-बदन पर कपड़ा नहीं, खाने को रोटी नहीं, बस चेहरे पर बेबसी लिए मासूम बेजुवानों की निरीह आँखें तलाश रही होती है भोजन के उस मूल को, जहां बड़े-बड़े रेस्तरां में हजारों-हजार के डिनर डकार दिए जाते हैं |

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सामाजिक सुरक्षा और श्रम क़ानूनों  के इस देश में मायने क्या हैं ये उनसे पुछकर देखो जो निजी क्षेत्रों में काम करते हैं | बॉस का वचन ही शासन होता है | दौड़ते-भागते कर्मचारियों को जिन्हें खाने और सही से सोने तक की फुर्सत नहीं होती वो अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ कैसे निभाते होंगे | अगर और गहराई में जाना चाहते हैं तो उन बिहारी अप्रवासी मजदूरों का हाल जानिए जो भेड़-बकरी की तरह ट्रेनों में सड़ांध मारती शौचालय के पास बैठकर दिल्ली, हरियाणा, मुंबई कमाने जाते हैं | 
8x6 के कमरें में चार-चार लोग की नींदें खर्राटे की तान कैसे सहती होगी | 
मकान मालिक की बन्दिशें ऐसी की बस चले तो खून चूस ले | फ़ैक्टरियों में 10 से 12 घंटे की ड्यूटि ली जाती है | तमाम श्रम क़ानूनों के इतर जीवन दांव पर लगाकर जो सिर्फ अपने बच्चों और परिवार के पेट पालने के लिए ये सब निरीह की तरह झेल ले वही इस देश का असली श्रमिक है | ये विकास उसकी हौंसलों से जन्म लेती है, ये उसकी पसीनें से सिंचित है | वे इस देश के आर्थिक मान-सम्मान समझे जाने वाले GDP की गहरी जड़ें हैं जिसके नींव पर हमारी सुढृध अर्थव्यवस्था खड़ी है |

किसी भी तरह की परिस्थितियों में देश के इन मजदूरों, श्रमिकों के साथ इस देश का सामाजिक सुरक्षा कानून हमेशा खड़ा होता है | दर्जनों कानून हैं जिनसे सामाजिक सुरक्षा की उपलब्धता का दावा किया जाता है, परंतु अगर कोई प्रत्यक्ष दिखता है तो वो है ईएसआईसी | कर्मचारी राज्य बीमा निगम भारत के असली मेहनती तबके के लिए विषम परिस्थितियों में साथ खड़ा दिखता है | रोजगार के पहले दिन से ही श्रमिकों और उनके परिवारों की हितलाभ की रक्षा अकल्पनीय है |

तो कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है की जो हमारी मिट्टी को मेहनत के बलबूते सींच रहा है, जिसके दम पर हम आर्थिक मजबूती के नगाड़े दुनिया भर में बजा रहें हैं वही मजदूर हाशिये पर क्यों हैं ? उनकी बेहतरी, सामाजिक समता के लिए हमें नए आयाम प्रशस्त करने होंगे, स्वस्थ कार्यबल-समृद्ध राष्ट्र के नारे की परिकल्पना को नई ऊंचाइयों पर ले जाना होगा |
नहीं तो सदियों से पुछे जाने वाले इस प्रश्न की अनुत्तरित जबाब कलंक बनाकर पूछता रहेगा की मेहनत जिसके पसीने से जन्म लेती है वही मजदूर उजाले को क्यों तरसता है |

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