इंसानों को किसी तय गंतव्य तक पहुँचाने वाली सडकें अपनी हालत के
अतिरिक्त कभी चर्चा में नहीं आ पाती| पर हाँ, अपने बदलते नामों की वजह से वह भी
शायद खुद को कम्युनल या सेक्युलर सा फिल करती होगी या फिर हजारों नेताओं की तरह
किस पार्टी का समर्थक बनूँ की दुविधा उसे परेशान करती होगी| सडकें भी सोंचती होंगी
की अगर इस पार्टी की सरकार आ गई तो मेरी हालत बेहतर हो जायेगी| कोई होगा जो मेरे
किनारे पर पड़ी इन धूलों को साफ़ करवा देगा या मेरे किनारे लगे पेड़ों को न काटने की
गारंटी देगा| सड़क बनवाना किसी भी इंसान के लिए सबसे मलाईदार काम माना जाता है|
छोडिये इन बातों को क्यूंकि मैं कुछ ज्यादा ही पॉलिटिकल होता जा रहा हूँ|
देश भर में किसी भी मुद्दे पर किसी ख़ास पार्टी का चमचा उस पार्टी की
सड़ांध मारती विचारधारा को बुलंद करने इसी सड़क पर उतर जाता है| अपने मालिक के प्रति
भक्ति दिखानी हो, वफ़ादारी साबित करनी हो या दिखावा करना हो तो सड़कों से बेहतर
स्थान तो कोई हो ही नहीं सकता| तोड़फोड़ होना, आगजनी होना सचमुच का सड़क होने का सबसे
बड़ा प्रमाण है| लोग ये क्यूँ भूल जाते हैं की देश की यही सडकें हमारे स्वतंत्रता
सेनानियों का प्रतिक है| लाला लाजपत राय पर लाठियां बरसाना, पीर अली की फांसी,
आजाद का शहीद होना या फिर शांतिपूर्वक प्रदर्शन करनेवालों पर पुलिस की गुंडई का
प्रत्यक्ष गवाह रही है, हमारी ये सडकें| इसका मजहब भी पता नहीं चलता| सड़कों पर
कीर्तन होते हैं तो तमाज भी पढ़ा जाता है| मूर्ति विसर्जन भी होता है, ताजिया भी
निकलती है, जीसस की मोमबती लेकर भी चला जाता है तो वहीँ वाहे गुरु जी की प्रभात
फेरी भी निकाली जाती है|
सड़कों पर सबकुछ बिकता है| कानून के रखवालों का ईमान, मजबूरी
का जिस्म, गरीबी की मेहनत, दिखावे का प्यार, अमीरों का पैसा सबकुछ ख़रीदा जा सकता
है, पर भावनाएं नहीं| क्यूंकि इसी सड़क के किसी चौराहे पर पसीने से तर-बतर, बास
मारती और फटे से कपडे पहनकर चिलचिलाती धुप में नंगी जमीन पर कटोरे के साथ कोई बैठा
होता है और उसी वक्त किसी कारों की खिडकियों के अन्दर से कोई कुत्ता मजे से गाने
की धुन पर थिरकता चला जाता है...और वो गरीब...
लेखक:- अश्वनी कुमार (ज्यादा नहीं लिखा पाया पर ये मेरी दरभंगा यात्रा
के अनुभवों को एक अलग तरीके से लिखी अभिव्यक्ति है...)
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