भारत की राजनीति में मर्यादा के बंधनों की एक सीमा में आलोचना या
बुराई करना इसकी पहचान रही है और हर एक नेता ने इन बंधनों को तोड़ने का प्रयास जरूर
किया है| देश की मौजूदा राजनीतिक बिरादरी इस मामले में कुछ आगे ही चली गयी है|
दूरदर्शिता के नाम पर परिवार को घसीटने का नया चलन आया है| नेता, राजनीति का
पालनहार कहा जाता है और जनता को इन नेताओं का पालनहार कहा जाता है| पर, 90 के दशक
के बाद जिस तरह से तमाम राज्यों में जाति, धर्म, संप्रदाय या उत्थान के नाम पर
क्षेत्रीय पार्टियों का जन्म हुआ, उन्हीं पार्टियों ने राजनीतिक बौद्धिकता का
हवाला देकर तमाम गुंडों, मवालियों की सहायता से इस धंधे में पैर जमाने की सोची और
काफी हद तक सफल भी हुए| ऐसी मानसिकता वाले कई दल राज्यों में सफलता से शासन भी चला
रहे हैं|
ऐसा बिलकुल भी नहीं है की उससे पहले के राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दलों
में दलगत बुराइयां नहीं थी या पैसे, धर्म, जाति के नाम पर अयोग्यों को चुनाव लड़ाकर
लोकतंत्र या जनता के भविष्य से खिलवाड़ करने की कोशिश नहीं की गई पर, उनकी भी एक
मर्यादा होती थी| चाहे वो संविधान के तकाजे से हो या सामाजिक ताने-बाने से, अगर
आपातकाल को अपवाद मान लिया जाए तो|
कहा जाता है की राजनीति में सब जायज है| वैसे भी जहाँ पैसा है वहां
मान-मर्यादा कहाँ मिलता? एक नेता दुसरे को गरिया रहा है, दुसरा पहले को और तीसरा
मज़े लेकर ताली पिट रहा है| नेताओं की बिरादरी में भी गावों की गलियों के बच्चों की
तरह हर-एक का छद्म नाम दिया जा रहा है, पप्पू, फेंकू या खुजलीवाल जैसा| सवाल है,
देश की जनता इतनी संवेदनहीन क्यों है, जब जनता को सुधारने, उसे अनुशासित बनाने का
ठेकेदार ही ठरकी हो जाने का संकेत दे रहा हो| क्या हम वास्तव में आधुनिक हो गए
हैं? इतने आधुनिक की शब्दों की वास्तविकता हमारे लिए मायने नहीं रखती| लोगों को मां-बहन की गालियाँ दी जाती है| एक बकता है तो दूसरा
भी बकता है और फिर अपनी-अपनी चमचागिरी चमकाने के लिए दोनों के पीछे लाखों चापलूस
एक-दुसरे की मां-बहन एक कर देते हैं (मायावती प्रकरण)| पर भारत मां को गाली दी गयी
तो कोई लड़ने नहीं उतरा| ये संस्कार, ये
अनुशासन उन्ही लोगों के बनाए संविधान, कानून के दिए हुए हैं जो सिस्टम के नाम पर
आम-आदमी को धकियाने के लिए अफसर बिठाए हुए हैं और गरियाने के लिए पुलिस| हर एक को
सिस्टम के नाम पर ये सब कुछ यूँ ही सहना पड़ता है...
हर एक नेता कानून से ऊपर होता है लेकिन पार्टी से नीचे| इसलिए की उसकी
पार्टी की विचारधारा संविधान से ऊपर है, उसकी पार्टी का झंडा, तिरंगे से ज्यादा
चटखदार होता है| वो क्यूँ न अपनी पार्टी की भक्ति करे? देश की भक्ति से गोली ही
मिलेगी पर पार्टी की भक्ति से उसके रोजगार का प्रबंध भी हो जाता है और साथ ही एक
दिन माननीय बन जाने के सपने देखते रहने का वरदान भी| भले ही वो झंडे क्यूँ न ढोता
हो, पोस्टर ही क्यूँ न लगाता हो?
पर बात राजनीतिक मर्यादा की है, आचरण की है| विनम्रता, अनुशासन और
ईमानदारी राजनीति में अगर किसी के पास है तो वह नेता नहीं हो सकता| जिस तरह से देश
की संसद में सड़क छाप भाषा का इस्तेमाल होने लगा है वह हमारी जडें खोद रही है| एक-दूसरे के विरुद्ध सख्त लहजे का बढ़ता इस्तेमाल इस बात का
संकेत है की राजनीति में व्यक्तिगत महत्कान्क्षा बढ़ रही है| पर जनता ये कतई न
सोंचे की ये गाली-गलौज उनके लिए की जा रही है| ये तो एक-दूसरे की बुराईयों को आइना
दिखाने के नाम पर अपना छिपाने की कोशिश की जा रही है और यही राजनीति का ऐतिहासिक
आदर्श भी रहा है...
खुब कर लीजिये, हो सके तो रामलीला मैदान को बुक करके इसका एक शो ही
आयोजित कर दीजिये| फिर तो चैनल वाले पहुंचकर लाइव टेलीकास्ट करके विज्ञापन वालों
से कमा भी लेंगे| जनता मज़े लेगी और कार्यकर्त्ता होने के नाम पर एक-दूसरे से लड़ भी
लेगी| पर चुनावों के वक्त सत्ता पाने के लिए मिल जाइएगा... इन मुर्ख जनता के
सेंटिमेंट के चक्कर में अपना भविष्य मत बर्बाद कीजियेगा... क्योंकि आपकी बिरादरी
की धूर्तता के इतिहास के आगे देश औंधे मुंह गिरा पड़ा है...
लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा...
No comments:
Post a Comment