देश में उपेक्षा के शिकार दलितों के लिए आरक्षण के ढोंग से ज्यादा कुछ
नहीं किया गया जिससे उनकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति बदले और बेहतर बने| बाबा साहेब
आंबेडकर आजकल इतने प्रचलित हैं की देश का हर नेता अपने भाषणों में उनका नाम जरूर
लेता है| इसलिए नहीं की उन्होंने दलितों, वंचितों या शोषितों की सामाजिक स्थिति को
आरक्षण या अधिकार का नाम देकर बेहतर करने की कोशिश की या उन नेताओं के लिए दलित
प्रेम की पटकथा लिखकर अभिनय करते रहने की विचारधारा का जन्म दिया| दलित उत्पीड़न की
कोई खबर मिलते ही इनकी दलित प्रेम की भुजाएं फडकने लगती है, मन-मष्तिस्क उनके वोट
को अपना बना लेने की रुपरेखा से भर आता है| पर
उन्हीं लोगों की वास्तविक चरितार्थ यह भी है की उनकी कारों को धोने वाले, झंडे को
ढोने वाले, बंगले की सफाई करनेवाले या गेटों पर सलामी ठोकने वाले लोग भी दलित हो
सकते हैं और बेशक होते हैं|
आंबेडकर ने तो कानून और आरक्षण का सहारा लिया जिस कारण वे अभी भगवान
की तरह पूजे भी जा रहे हैं| पर हकीकत है की इसलिए नहीं पूजे जा रहे की उन्होंने
दलितों को समाज में एक नई पहचान दिलाई या उन्हें अगड़ों के साथ खड़ा कराने की लिए
संविधान, कानून की मुकम्मल व्यवस्था कराई| लेकिन सच यह है की आज उनकी पूजा इसलिए
की जा रही है क्योंकि उन्होंने भारत के नेताओं के लिए दलित उत्थान, शोषण मुक्त
समाज के नारों में इन नेताओं के लिए एक बेहतर, स्थायी और मुकम्मल व्यवस्था की
रुपरेखा तैयार की थी| शासन करते रहने के लिए आरक्षण का जुमला बनाया था| जातिवाद के
चुंगुल से जनजातियों को आजाद कराने का सपना जो उन्होंने देखा था वही सपना स्वयं को
उनके उत्तराधिकारी घोषित कर रखने वाले मायावती, नीतीश, मुलायम, कांग्रेस और यहाँ
तक की भाजपा भी देख रही है और दलितों को दिखा भी रही है|
दलित उत्पीडन के बहाने हर बार हर एक राजनीतिक दल उस सपने को
चुनावों के वक्त देश को बताती है और सपने देखते रहने का नारों के बदौलत हौंसला भी
देती है| पर सवाल है की आरक्षण, विभिन्न दलित अत्याचार निवारण कानूनों,
अरबों-खरबों की दलित योजनाओं पर देश का पैसा फूंक देने से भी हालात क्यूँ नहीं
बदली? देश में अनुसूचित तबके के लोग ही सर्वाधिक कुपोषित और बेघर क्यूँ हैं? उनका
पैसा, उनके सपने को कौन डकार जाता है?
जाति के नाम पर, छुआछुत के नाम पर या परंपरा न निभाने के नाम पर किसी
को पीटना अगर अगड़ों की खुलेआम गुंडई है तो मूर्तियाँ बनाकर, घरों में भोजन करके या
संसद में हंगामें करके दलितों का मसीहा बताना उससे भी बड़ी गुंडागर्दी है| दलितों की आवाज बनकर उनके आवाज को वोट बैंक में तब्दील करना
अधिकारों की हत्या है, शोषण की प्राणवायु है और समाज के असल गुंडों के लिए
प्रेरणास्त्रोत भी... इन सब में सबसे बड़े
मुर्ख दलित ही हैं और बेशक इन नेताओं के बदौलत जीवनभर रहेंगे...
लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा...
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