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13 April 2017

अंबेडकर का महिमामंडन

संविधान के निर्माता व दलितों का मसीहा कहे जाने वाले डॉ भीम राव अंबेडकर का महिमामंडन उनकी शख्शियत को सीमित कर रहा है| राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए या आरक्षण की मांग को लेकर दलित-दलित चिल्लाने वाले अंबेडकर को बेच रहे हैं| उनके सपने को व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति का साधन बनाया जा रहा है| रोज नए-नए दलित प्रेमी पैदा हो रहे हैं और अंबेडकर बनने की चाह में दलितों के अधिकारों का सौदा कर दे रहे हैं| कोई वेमुला आता है तो कोई जेएनयू से कन्हैया आता है| दोनों को आजादी चाहिए, बस फर्क इतना है की उन्हें उनके अंबेडकर के संविधान से आजादी चाहिए, स्वार्थ से नहीं| राजनीतिक ठेकेदारों से पूछना चाहिए की जातियता के विमर्श में दलित होने का अधिकार उनसे कौन छीन रहा है? दलित होने से कौन रोक रहा है?

दलितों के सामाजिक उत्थान की कोशिशों का समूचा ठेका बाबा साहब के पास पड़ी है| आरक्षण के प्रावधानों में दलितों के लिए खूब सोंचा गया, उनके भविष्य निर्धारण के लिए दूसरों का हक़ तक छिना गया| फिर भी आज दलित दलित क्यों है? अंबेडकर के सपनों को लागु कराने वाले ठेकेदार करोड़ों की गाड़ियों में कैसे घुमने लगे? अंबेडकर के नाम और उनकी मूर्तियों का इस्तेमाल करके दलितों के लोकतान्त्रिक अधिकारों को किसने हड़पा? अगर ऐसा था तो रोहित वेमुला की क्रांतिकारी आदर्शों के सामने अंबेडकर की क्या जरुरत है|

भेदभाव-छुआछुत के उन्मूलन के लिए संविधान में बाबा साहेब ने कड़े प्रावधान बनाए| संविधान का निर्माण किया, देश के लिए सोंचा न सोंचा पर दलितों-शोषितों की बेहतरी के लिए खूब दिमाग खपाया| अंग्रेजों के कानून बदले न बदले पर दलितों के लिए कानून बदले, आर्थिक मदद का इंतजाम किया और समानता के सपने देखे| फिर भी दलित उतना क्यों नहीं बदला जितना बदलना चाहिए था? दलितों की विकास रफ़्तार अन्य जातियों के पैरों में दलित विरोधी की बेड़ियाँ लगे होने के बावजूद भी कम कैसे रही? आजादी के इतने सालों के बाद आज जब समाज, उसकी संकीर्ण सोच, उसकी मानसिकता और व्यव्हार में जो व्यापक परिवर्तन हुआ है फिर भी जातियता के बंधन में दलित शब्द का चोट अंबेडकर  को घायल करता है| ये चोट जातिवाद के उस संकीर्ण मानसिकता का परिणाम है जिसमें एक दलित ही दलित का उत्थान नहीं चाहता है|

डॉ भीम राव अंबेडकर एक अच्छे संविधान निर्माता हों न हों लेकिन एक अच्छे समाजसेवी जरूर थे| इतिहास उठाकर देखें तो डॉ राव के सन्दर्भ में ढेरों बातें शोर पैदा करती है| आजादी में उनका कोई योगदान ने होने से लेकर गोलमेज विवाद, ब्रिटिशों का पक्ष लेने से लेकर लन्दन में टाई-कोर्ट पहनकर स्वदेशी आन्दोलन का मजाक बनाने तक है| बौद्ध बन जाने तक भी है और आरक्षण विवाद तक भी| शायद इसलिए भी आरक्षण व्यव्स्था उनके दलित होने की सोंच की ही उपज थी|
Image result for ambedkar imagesआरक्षण से देश जोड़ने की हकीकत में एक तरफ आज दलितों का उठता जीवन स्तर और बढ़ती सामाजिक स्वीकार्यता है तो फिर दूसरी तरफ आरक्षण का लाभ उठाये अयोग्यों से देश चलवाकर देश को फिर से सोने की चिड़िया बनने के सपने भी हिलोर मार रही है....!!!

बस दलित-दलित चिल्लाकर या अंबेडकर की मूर्ति बनाकर दलितों के लोकतान्त्रिक अधिकारों को खरीदों मत !!!

लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... ब्लॉग पर आते रहिएगा...

03 September 2016

बदलते भारत की ये हकीकत...

Image result for odisha dana manjhi imageपिछले दिनों उड़ीसा के कालाहांडी से पत्नी के शव को कंधे पर लादकर चलते दाना मांझी के चेहरे पर मजबूरी का जो दर्दनाक सच देखने को मिला वो शायद कई दशकों तक याद रखा जाएगा| शहर के चकाचौंध, धूम-धड़ाके, वादे-घोषणाओं से दूर इस व्यक्ति के जज्बे और दुःख की अनंत सीमा में हमारा देश पीछे चला गया| विकासवादी नारे के बीच से एक अकेला व्यक्ति सारे दावों को झुठलाता हुआ चला गया| क्या ये तस्वीर सिर्फ दाना मांझी की है या फिर उन सारे दूर-दराज के गांवों में रहनेवाले आदिवासियों की असली आबादी की जो शायद ही कभी इस देश के असली भूगोल या किसी सर्वे में दिखाई गई हो| क्या विकास की रफ़्तार में इनकी छवि सिर्फ एक खर्चालू योजनाओं की जड़ मानी जाती है या फिर मीडिया, सरकार की नज़रों में शोषितों, वंचितों के एकमात्र मतलब रोहित वेमुला और गुजरात के दलित रह जाते हैं? कोई भी नेता बड़े टरकाऊ अंदाज से लन्दन में पढ़कर बड़े होने वाले बाबा साहब के आदर्शों को ही इस देश की सामाजिक उत्थान से जोड़कर देख देखते हैं, उनके विचारों से आगे नहीं सोंच पाते हैं| पर क्या कभी सरकार ने दूर-दराज के इलाकों में बसने वाले देश के असली शोषितों-वंचितों के लिए योजनाओं से अधिक कुछ सोचा?

Image result for dana manjhi udisa imageये तस्वीर दाना मांझी की हो सकती है, हजारो-लाखों गरीबों की भी हो सकती है लेकिन इनकी वास्तविकता वही है जो मंत्रालय में एसी-दफ्तरों की फाइलों में पड़ी है| सरकार का खजाना लुट रहा है, योजनायें सफलता से चल रही है, वंचितों को रोटी-मकान दिए जा रहे हैं पर कहाँ? अगर वास्तव में ऐसा होता तो दाना मांझी की तस्वीर हमें विचलित नहीं करती| हम सब सरकारी मशीनरी की हकीकत जानते हैं शायद इसलिए ही इन तस्वीरों का मानवतावाद से नाता जुड़ा| देश काँप गया, क्योंकि 21वीं सदी के डिजिटल भारत में आदिकाल की झलक मिली| इन्फ्रास्ट्रक्चर का नारा सरकारी तंत्र से है, जिसमें नेता, अधिकारी, डीएम, अफसर, पुलिस, क्लर्क जैसे स्ट्रक्चरों को गरीबों के लिए भेद पाना असंभव है|

सरकार भले ही शहरों और उसकी आधुनिक डिजिटल इंडिया को देखकर अपनी पीठ थपथपा रही हो पर, अभी भी गाँवों की असली आबादी अपने अधिकारों, कर्तव्यों से अनजान है| सरकारी आदमियों का उनमें खौफ है, उनके हर नियमों को वो आसानी से मानते हैं| किसी काम के लिए 4-5 बार उनके दफ्तरों का चक्कर लगा लेते हैं, बैंक में खाते खुलवाने के लिए अधिकारीयों की बेवजह के नियम-कायदों को मानते हैं फिर भी काम न बने तो इनसे रूपये ऐठ लेना बेहद साधारण काम है| इसलिए अक्सर सरकारी योजनाओं का लाभ वास्तव में उन्हें इस भ्रष्ट तंत्र के कारण नहीं मिल पाता|

इसलिए, सरकार चाहे जितनी भी बार सामाजिक उत्थान के नारों को आंबेडकर के सपने के सहारे बुलंद करने की कोशिश करे लेकिन इस देश का तंत्र ऐसा नहीं होने देगा| क्योंकि यहाँ किसी को वोट चाहिए तो किसी को पैसे और जो बच गए उन्हें कामचोरी की लत है| शहरों की चकाचौंध में मस्त शासन भले ही भारत को इंडिया बना देने के लिए झूम रहा हो, पर दाना मांझी जैसे लाखों लोगों की हकीकत ही इसका मूल है... जिन्हें कदम-कदम पर सत्ता के गुंडे उनके सपने को खदेड़ देते हैं...


Image result for odisha dana manjhi imageलेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... ब्लॉग पर आते रहिएगा...

04 August 2016

दलित उत्पीड़न का पाखंड

देश में उपेक्षा के शिकार दलितों के लिए आरक्षण के ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं किया गया जिससे उनकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति बदले और बेहतर बने| बाबा साहेब आंबेडकर आजकल इतने प्रचलित हैं की देश का हर नेता अपने भाषणों में उनका नाम जरूर लेता है| इसलिए नहीं की उन्होंने दलितों, वंचितों या शोषितों की सामाजिक स्थिति को आरक्षण या अधिकार का नाम देकर बेहतर करने की कोशिश की या उन नेताओं के लिए दलित प्रेम की पटकथा लिखकर अभिनय करते रहने की विचारधारा का जन्म दिया| दलित उत्पीड़न की कोई खबर मिलते ही इनकी दलित प्रेम की भुजाएं फडकने लगती है, मन-मष्तिस्क उनके वोट को अपना बना लेने की रुपरेखा से भर आता है| पर उन्हीं लोगों की वास्तविक चरितार्थ यह भी है की उनकी कारों को धोने वाले, झंडे को ढोने वाले, बंगले की सफाई करनेवाले या गेटों पर सलामी ठोकने वाले लोग भी दलित हो सकते हैं और बेशक होते हैं|
                                                                                                   
Image result for poverty india imageगुजरात से लेकर कर्नाटक और उत्तरप्रदेश तक दलितों पर अत्याचार के मामले बढे हैं| अनुसूचित जातियां या जनजातियाँ अगड़ी जातियों के गुंडई के आगे कुछ नहीं कर पाते| एससी-एसटी एक्ट से लेकर दलित उत्पीडन जैसे कई कानूनों के तामझाम भी इन्हें सामाजिक या कानूनी सुरक्षा नहीं दे पाता| कई जगहों पर हालात अभी भी इतने भयावह हैं की ये लोग उनके सामने कुर्सी पर बैठने का साहस नहीं जुटा पाते, सलाम ठोकने और सीवरेज साफ़ करने का रिवाज उनकी पीढ़ियों की परम्परा रही है| अतीत के जितने भी राजनेताओं चाहे वो आंबेडकर हों या कांशीराम सभी ने दलित उत्थान की कोशिश राजनीतिक तकाजे से की, लोगों के बीच जाने की जगह संसद में बैठकर हकीकत जानने की कोशिश की|

आंबेडकर ने तो कानून और आरक्षण का सहारा लिया जिस कारण वे अभी भगवान की तरह पूजे भी जा रहे हैं| पर हकीकत है की इसलिए नहीं पूजे जा रहे की उन्होंने दलितों को समाज में एक नई पहचान दिलाई या उन्हें अगड़ों के साथ खड़ा कराने की लिए संविधान, कानून की मुकम्मल व्यवस्था कराई| लेकिन सच यह है की आज उनकी पूजा इसलिए की जा रही है क्योंकि उन्होंने भारत के नेताओं के लिए दलित उत्थान, शोषण मुक्त समाज के नारों में इन नेताओं के लिए एक बेहतर, स्थायी और मुकम्मल व्यवस्था की रुपरेखा तैयार की थी| शासन करते रहने के लिए आरक्षण का जुमला बनाया था| जातिवाद के चुंगुल से जनजातियों को आजाद कराने का सपना जो उन्होंने देखा था वही सपना स्वयं को उनके उत्तराधिकारी घोषित कर रखने वाले मायावती, नीतीश, मुलायम, कांग्रेस और यहाँ तक की भाजपा भी देख रही है और दलितों को दिखा भी रही है|

दलित उत्पीडन के बहाने हर बार हर एक राजनीतिक दल उस सपने को चुनावों के वक्त देश को बताती है और सपने देखते रहने का नारों के बदौलत हौंसला भी देती है| पर सवाल है की आरक्षण, विभिन्न दलित अत्याचार निवारण कानूनों, अरबों-खरबों की दलित योजनाओं पर देश का पैसा फूंक देने से भी हालात क्यूँ नहीं बदली? देश में अनुसूचित तबके के लोग ही सर्वाधिक कुपोषित और बेघर क्यूँ हैं? उनका पैसा, उनके सपने को कौन डकार जाता है?

Image result for dalit india imageदेश में दलित अत्याचार या मानसिक उत्पीडन पर समुचित व्यवस्था के बावजूद भी रोक क्यों नहीं लगाई जा सकी है? आंकडें बताते हैं की अत्याचार के विरुद्ध पुलिस शिकायत के बाद हर दुसरे दलित पर दुबारा हमले होते हैं या वो शिकायत वापस ले लेता है| कुछ मामलों में तो दलितों की तरफ से भी अगड़ों या ओबीसी जातियों पर झूठे मुकदमें दर्ज कराकर उनका उत्पीडन किया जाता है| अधिकारों के दुरूपयोग के मामलों में भी गहराई से विचार करके समुचित व्यवस्था बनाई जानी चाहिए ताकि किसी का अधिकार या आवाज न दबे|

जाति के नाम पर, छुआछुत के नाम पर या परंपरा न निभाने के नाम पर किसी को पीटना अगर अगड़ों की खुलेआम गुंडई है तो मूर्तियाँ बनाकर, घरों में भोजन करके या संसद में हंगामें करके दलितों का मसीहा बताना उससे भी बड़ी गुंडागर्दी है| दलितों की आवाज बनकर उनके आवाज को वोट बैंक में तब्दील करना अधिकारों की हत्या है, शोषण की प्राणवायु है और समाज के असल गुंडों के लिए प्रेरणास्त्रोत भी...   इन सब में सबसे बड़े मुर्ख दलित ही हैं और बेशक इन नेताओं के बदौलत जीवनभर रहेंगे...

लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... ब्लॉग पर आते रहिएगा...