पिछले दिनों उड़ीसा के कालाहांडी से पत्नी के शव को कंधे पर लादकर चलते
दाना मांझी के चेहरे पर मजबूरी का जो दर्दनाक सच देखने को मिला वो शायद कई दशकों
तक याद रखा जाएगा| शहर के चकाचौंध, धूम-धड़ाके, वादे-घोषणाओं से दूर इस व्यक्ति के
जज्बे और दुःख की अनंत सीमा में हमारा देश पीछे चला गया| विकासवादी नारे के बीच से
एक अकेला व्यक्ति सारे दावों को झुठलाता हुआ चला गया| क्या ये तस्वीर सिर्फ दाना
मांझी की है या फिर उन सारे दूर-दराज के गांवों में रहनेवाले आदिवासियों की असली
आबादी की जो शायद ही कभी इस देश के असली भूगोल या किसी सर्वे में दिखाई गई हो|
क्या विकास की रफ़्तार में इनकी छवि सिर्फ एक खर्चालू योजनाओं की जड़ मानी जाती है
या फिर मीडिया, सरकार की नज़रों में शोषितों, वंचितों के एकमात्र मतलब रोहित वेमुला
और गुजरात के दलित रह जाते हैं? कोई भी नेता बड़े टरकाऊ अंदाज से लन्दन में पढ़कर
बड़े होने वाले बाबा साहब के आदर्शों को ही इस देश की सामाजिक उत्थान से जोड़कर देख
देखते हैं, उनके विचारों से आगे नहीं सोंच पाते हैं| पर क्या कभी सरकार ने
दूर-दराज के इलाकों में बसने वाले देश के असली शोषितों-वंचितों के लिए योजनाओं से
अधिक कुछ सोचा?
ये तस्वीर दाना मांझी की हो सकती है, हजारो-लाखों गरीबों की भी हो
सकती है लेकिन इनकी वास्तविकता वही है जो मंत्रालय में एसी-दफ्तरों की फाइलों में
पड़ी है| सरकार का खजाना लुट रहा है, योजनायें सफलता से चल रही है, वंचितों को
रोटी-मकान दिए जा रहे हैं पर कहाँ? अगर वास्तव में ऐसा होता तो दाना मांझी की
तस्वीर हमें विचलित नहीं करती| हम सब सरकारी मशीनरी की हकीकत जानते हैं शायद इसलिए
ही इन तस्वीरों का मानवतावाद से नाता जुड़ा| देश काँप गया, क्योंकि 21वीं सदी के
डिजिटल भारत में आदिकाल की झलक मिली| इन्फ्रास्ट्रक्चर का नारा सरकारी तंत्र से
है, जिसमें नेता, अधिकारी, डीएम, अफसर, पुलिस, क्लर्क जैसे स्ट्रक्चरों को गरीबों
के लिए भेद पाना असंभव है|
सरकार भले ही शहरों और उसकी आधुनिक डिजिटल इंडिया को देखकर अपनी पीठ
थपथपा रही हो पर, अभी भी गाँवों की असली आबादी अपने अधिकारों, कर्तव्यों से अनजान
है| सरकारी आदमियों का उनमें खौफ है, उनके हर नियमों को वो आसानी से मानते हैं| किसी
काम के लिए 4-5 बार उनके दफ्तरों का चक्कर लगा लेते हैं, बैंक में खाते खुलवाने के
लिए अधिकारीयों की बेवजह के नियम-कायदों को मानते हैं फिर भी काम न बने तो इनसे
रूपये ऐठ लेना बेहद साधारण काम है| इसलिए अक्सर सरकारी योजनाओं का लाभ वास्तव में
उन्हें इस भ्रष्ट तंत्र के कारण नहीं मिल पाता|
इसलिए, सरकार चाहे जितनी भी बार सामाजिक उत्थान के
नारों को आंबेडकर के सपने के सहारे बुलंद करने की कोशिश करे लेकिन इस देश का तंत्र
ऐसा नहीं होने देगा| क्योंकि यहाँ किसी को वोट चाहिए तो किसी को पैसे और जो बच गए
उन्हें कामचोरी की लत है| शहरों की चकाचौंध में मस्त शासन भले ही भारत को इंडिया
बना देने के लिए झूम रहा हो, पर दाना मांझी जैसे लाखों लोगों की हकीकत ही इसका मूल
है... जिन्हें कदम-कदम पर सत्ता के गुंडे उनके सपने को खदेड़ देते हैं...
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