भारत और पाकिस्तान के बीच पैदा युद्ध के हालत मीडिया को छोड़कर किसी को
विचलित नहीं कर रही| दुनिया की तमाम महाशक्तियां दो परमाणु संपन्न राष्ट्र के मध्य
खतरे को गंभीरता से क्यों नहीं ले रही ये समझना बेहद जरूरी है| भारत की पहचान एक
शांत, सहिष्णु और एक बाज़ार के रूप में है| कश्मीर पर भारत का रक्षात्मक रवैया इसका
एक अहम कारण है| पाक अधिकृत कश्मीर में चीन की परियोजनाओं को न रोक पाना हमारी
संप्रभुता पर पहले ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है| इन दोनों पड़ोसियों के रहते भारत
कभी अपनी मौजूदा विदेश नीति से पार नही पा सकता| इसे उग्र बनना होगा, जैसे को तैसा
कर देने की फिलिंग लानी होगी| पर हम जानते हैं की नेताओं की दूरदर्शी सोच के नाते
ऐसा नहीं हो सकता| उनका खून जनता के जैसे उबाल नहीं मारता|
भारत में अक्सर हर हमले के बाद यह कहा जाता है की अमेरिका ने पाक को
आतंकी कैंप हटाने को कहा है मतलब वह हमारी तरफ से पाक को सबक सिखाएगा| लेकिन इस
बात पर भरोसा करना हमारी मुर्खता होगी| इतिहास गवाह रहा है की अमेरिका की फितरत
हमेशा दो देशों के बीच युद्ध के हालत पैदा करके हथियार बेचना उसकी युद्ध आधारित
अर्थव्यवस्था रही है| ईराक, वियतनाम जैसे देशों की स्वार्थ साधने के लिए उसकी
आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक आजादी बर्बरता से नष्ट कर दी| भारतीय विदेश नीति में
अमेरिका की चापलूसी हमारी कुटनीतिक विफलता है| इसलिए की अमेरिका यह जानते हुए भी
की पाकिस्तान लादेन का संरक्षक था फिर भी क्या उसने पाक की आतंकी गतिविधियों पर
पाबंदी लगाईं? उसे परमाणु बम, लड़ाकू विमान और भारत के खिलाफ संसाधन नहीं दिए? क्या
ये सामरिक शक्ति भारत को रोकने के लिए नहीं दी?
लेकिन, उरी हमले के बाद सरकार और मोदी की रणनीतिक चूक या
युद्ध का भय का खामियाजा हमें एक कमजोर और पिलपिले देश के रूप में प्रदर्शित
करेगा| सरकार की तरफ से कहा गया की जनभावना में फैसले नहीं लिए जा सकते| मतलब साफ
है की जनता उत्त्साही है, मुर्ख है, भविष्य सोचने वाली नहीं है| सब जानते हैं की
युद्ध का मतलब विनाश है फिर भी एक गये-गुजरे देश से अपनी संप्रभुता खत्म कराने से
अच्छा है| पर, हमें तो यह सवाल पूछने का अधिकार है ही की इस तरह की घटना से
निपटने और फ़ौरन कारवाई करने के लिए पहले से योजना क्यों नहीं थी? क्या हमें किसी
चीज को तय करने के लिए सप्ताह भर बैठक करनी पड़ती है? डोभाल और मोदी को समझना होगा,
तय करना होगा की युद्ध या कायरता? कहीं ऐसा न हो की भारत और पाकिस्तान की गरीबी को
दूर करने के प्रयासों में मोदी देश की संप्रभुता लूटा दें|
जगह और समय का इन्तजार करते-करते जनता और सेना दोनों उबने लगी है|
सरकार की गतिविधियों से और उसकी विश्व महाशक्ति बनने की चाहत देश पर भारी पड़ रही
है| भारत की कूटनीति आजादी के बाद इतनी सफल रही है की वो आज चाहकर भी न तो सिन्धु
का पानी रोक सकती है, न व्यापार और न ही मार खाने की आदत| भारत ने खुद को दोनों
बिगडैल पड़ोसियों से घिरवा लिया है| सबकुछ साफ़ है की भारत का युद्ध से बर्बादी का डर
न तो कभी चीन, पाक को साध सकता और और न ही कभी महाशक्ति बन सकता है| महाशक्ति बनने
का जूनून, आक्रामकता और उसका राष्ट्र की संप्रभुता निर्णायक होती है, जिसमें भारत कभी
प्रयास नहीं कर सकता|
इसलिए सवाल आता है की जब युद्ध नहीं लड़ना, विनाश नहीं लाना तो राफेल
क्यों ख़रीदा? अरबों-खरबों का रक्षा खरीद पर पैसे क्यों बहाए जा रहे हैं? इस पैसे
से लाखों गाँव-गरीब-किसान का कल्याण होता, देश आगे बढ़ता| या फिर राजपथ पर
प्रदर्शनी दिखाकर देश का सीना गर्व से कुप्पा कर देंगे... महाशक्ति बन पाने के
सपने के साथ...
सही है की जनभावना में फैसले नहीं लिए जाते लेकिन 56
इंच के सीने के ताकत कम-से-कम ओलांद की तरह भी दिखा देते, मिटाने की कसमें खा लेते
तो देश को सुकून मिलता...
(इस लेख को अन्यथा न लें... ये एक गुस्सा हो सकता है, फिर भी हम
श्रेष्ठ हैं...)
लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा...
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