सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव संवैधानिक संकट पैदा करता है|
लेकिन इस टकराव का कोई ख़ास प्रभाव न तो सरकार और न ही न्यायपालिका पर पड़ता है
बल्कि इन दोनों के सर्वश्रेष्ठ होने की जंग में जनता मारी जाती है, उनका हक़ इनके
बेमतलब के कायदों-कानूनों से छीनता रहता है| लोकतंत्र के सफल होने के शर्तों में
न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका एक दुसरे के अनुपूरक हैं| संविधान में
कार्यपालिका को विधायिका के प्रति जबकि विधायिका को जनता के प्रति जबावदेह बनाया
गया है, वहीँ न्यायपालिका को स्वतंत्र रखा गया है| फिर सवाल है की स्वतंत्रता के
बहाने असीमित अधिकारों के बलबूते किसी के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी क्यों हो
रही है? देश का सर्वोच्य पथप्रदर्शक बनने की कोशिश हमारे न्यायालय क्यों कर रहे
हैं? जिनमें आलोचना सहने तक की क्षमता नहीं!
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति बिल को रद्द करना लोकतंत्र में
निष्पक्षता और स्वतंत्रता के नाम पर तानाशाही, अराजकता पनपना है| दुनिया का कौन सा
ऐसा लोकतान्त्रिक देश हैं जो खुद की नियुक्ति खुद ही करता है? अगर कॉलेजियम
प्रणाली जैसे ही संसद की समितियां खुद ही सांसद नियुक्त करने लगे तब क्या होगा? अमेरिका, जहाँ की
न्यायिक पुरावलोकन की प्रक्रिया हमारे संविधान का स्त्रोत है, वहां भी सरकार के
तीनों अंग एक दुसरे को नियुक्त करते हैं| लेकिन हम अपनी न्यायपालिका पर वैसा नाज
नहीं कर सकते| कई विद्वान न्यायधीशों ने पहले भी कहा है की उपरी अदालतों में
पहुँचने वाले आधे जज अयोग्य होते हैं| इसमें कोई संदेह नहीं की हमारे न्यायालय ने
कई बार विषम परिस्थितियों में भी एतिहासिक निर्णय देकर देश और लोकतंत्र की रक्षा
की है|
वर्ष 1993 में देश के सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही जजों को
नियुक्त करने वाली कॉलेजियम व्यवस्था बना ली| देश का शासन उस वक्त घोटालों, आर्थिक
सुधार व राजनीतिक हित से आगे इस मनमानेपन पर अंकुश लगाने की नहीं सोच सका| नतीजा
यह हुआ की देश के सर्वोच्य अदालतों में फिल्मों के डायलाग और कविताओं, दोहों के
आधार पर फैसले सुनाने वाले जज न्यायमूर्ति कहलाने लगे| जस्टिस काटजू जैसे जजों का
सुप्रीम कोर्ट पहुंचना ताजा उदाहरण है| मतलब, संविधान की सही व्याख्या करने वालों
की नियुक्ति का ही प्रावधान संविधान में नहीं है|
लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा...
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