सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव संवैधानिक संकट पैदा करता है|
लेकिन इस टकराव का कोई ख़ास प्रभाव न तो सरकार और न ही न्यायपालिका पर पड़ता है
बल्कि इन दोनों के सर्वश्रेष्ठ होने की जंग में जनता मारी जाती है, उनका हक़ इनके
बेमतलब के कायदों-कानूनों से छीनता रहता है| लोकतंत्र के सफल होने के शर्तों में
न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका एक दुसरे के अनुपूरक हैं| संविधान में
कार्यपालिका को विधायिका के प्रति जबकि विधायिका को जनता के प्रति जबावदेह बनाया
गया है, वहीँ न्यायपालिका को स्वतंत्र रखा गया है| फिर सवाल है की स्वतंत्रता के
बहाने असीमित अधिकारों के बलबूते किसी के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी क्यों हो
रही है? देश का सर्वोच्य पथप्रदर्शक बनने की कोशिश हमारे न्यायालय क्यों कर रहे
हैं? जिनमें आलोचना सहने तक की क्षमता नहीं!
लोकतंत्र की सबसे बड़ी शर्त है की उसके द्वारा चुनी हुई सरकार उनके
प्रति उत्तरदायी हो| सांसद, विधायक जैसे भी हों चाहे गुंडे, मवाली या अरबपति क्यूँ
न हों उन्हें हर अगले 5 साल में जनता को हिसाब देना होता है, उनको खरी-खोटी सुननी
होती है| मतदाता चाहे जितना भी नासमझ हो या लालची, बिकाऊ हो वो अपने अधिकारों के
लिए नेताओं के दरवाजे पर हक़ से ज्यादा है| इस तरह से क्षेत्र की जनता की बुनियादी
समस्याओं को नेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता| फिर भी जब जनता की बेहतरी के लिए
योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाता है तो कोर्ट स्टे आर्डर पारित करना अपना अधिकार
मानती है| लेकिन ये अधिकार चुनाव प्रक्रिया या चुनाव सुधार के मामले में प्रभावी
क्यूँ नहीं होती? न्यायपालिका निष्पक्ष है पर वो नेता, अभिनेता या अरबपतिओं पर
भावनात्मक तौर पर त्वरित फैसले लेती है| देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों और उच्चतम
न्यायालय में लाखों केस पेंडिंग हैं पर उनके लिए सरकार के बनाए कानूनों का रिव्यु,
फिल्मों को प्रमाण पत्र देना या निचली अदालतों के फैसलों को नैतिकता के हवाले रद्द
करना या फिर किसी ख़ास धर्म को दिशा दिखाना ज्यादा जरूरी है|
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति बिल को रद्द करना लोकतंत्र में
निष्पक्षता और स्वतंत्रता के नाम पर तानाशाही, अराजकता पनपना है| दुनिया का कौन सा
ऐसा लोकतान्त्रिक देश हैं जो खुद की नियुक्ति खुद ही करता है? अगर कॉलेजियम
प्रणाली जैसे ही संसद की समितियां खुद ही सांसद नियुक्त करने लगे तब क्या होगा? अमेरिका, जहाँ की
न्यायिक पुरावलोकन की प्रक्रिया हमारे संविधान का स्त्रोत है, वहां भी सरकार के
तीनों अंग एक दुसरे को नियुक्त करते हैं| लेकिन हम अपनी न्यायपालिका पर वैसा नाज
नहीं कर सकते| कई विद्वान न्यायधीशों ने पहले भी कहा है की उपरी अदालतों में
पहुँचने वाले आधे जज अयोग्य होते हैं| इसमें कोई संदेह नहीं की हमारे न्यायालय ने
कई बार विषम परिस्थितियों में भी एतिहासिक निर्णय देकर देश और लोकतंत्र की रक्षा
की है|
हमारी न्यायपालिका अक्सर संविधान का रक्षक होने की दुहाई देकर तमाम
योजनाओं, सरकारों और कार्यपालिका के सुचारू कार्यप्रणाली में बेवजह बाधा डालती है|
तमाम तरह के गैर-जरूरी आदेशों और निर्णयों का बोझ चुपचाप हमें सहना होता है| फिर
भी कोर्ट के कई निर्णय जनहितैषी व व्यवहारिक भी होते हैं लेकिन अधिकतर मामलों में
कोर्ट के रवैया बेहद तल्ख़ और संदेहास्पद होता है|
वर्ष 1993 में देश के सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही जजों को
नियुक्त करने वाली कॉलेजियम व्यवस्था बना ली| देश का शासन उस वक्त घोटालों, आर्थिक
सुधार व राजनीतिक हित से आगे इस मनमानेपन पर अंकुश लगाने की नहीं सोच सका| नतीजा
यह हुआ की देश के सर्वोच्य अदालतों में फिल्मों के डायलाग और कविताओं, दोहों के
आधार पर फैसले सुनाने वाले जज न्यायमूर्ति कहलाने लगे| जस्टिस काटजू जैसे जजों का
सुप्रीम कोर्ट पहुंचना ताजा उदाहरण है| मतलब, संविधान की सही व्याख्या करने वालों
की नियुक्ति का ही प्रावधान संविधान में नहीं है|
सवाल है की कोर्ट किसी मामलों की निर्णय में एकरूपता क्यूँ नहीं बना
पाया? हर एक जजों के फैसले एक ही मामलों में अलग-अलग और विरोधाभाष लिए क्यूँ रहती
है? अगर ऐसा है तो हम समझ सकते हैं की न्याय की परिभाषा नियम-कानून या संविधान से
नहीं आती बल्कि वो जजों की मानसिकता, उनके फ़ालतू
विचारों की मोहताज होती है| क्या वाकई न्याय हो रहा? क्या वाकई संविधान की
रक्षा हो रही है? क्या सच में देश में कानून का शासन है? या देश में हजारों-लाखों
सालों से चली आ रही धर्म से लेकर समाज तक को दिशा दिखाने में 67 साल पुरानी
न्यायपालिका और उसके संविधान के आगे यह बौनी है... सत्ता या शासन, देखते हैं कौन
राज करता है और कब तक...
लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा...
No comments:
Post a Comment