किसी मानव की जिन्दगी का सबसे अनमोल पल उसका बचपन होता है| न दुनिया
की चिंता, न घर की फ़िक्र, न रिश्तों की समझ और न अपराध बोध| खेल में मिट्टी से
मोहब्बत, पढाई में छुट्टी से प्यार और जिद में खिलौने लेने की प्रतिभा| अद्भुत,
अतुलनीय है बचपन| बड़ों का लाड-प्यार और बुजुर्गों का दुलार उसे सारी दुनिया अपना
सा दिखाती है| गोद लेने और हठ मनवाने की उसकी कला के आगे अच्छे-अच्छे कलात्मक
कलाकार मंद हैं|
बच्चों की बचपन की डोर इस आधुनिकता में ढीली हो चली है|
अश्लीलता का वातावरण बचपन की डोर को मैली कर रहा है| माता-पिता जिम्मेदारियों से
भागकर इस डोर को किसी ‘आया’ या ‘पडोसी’ के हाथों थमा दे रहे हैं| इस बचपन की डोर
में कसावट उस परिवेश से आता है जिसमें अनुशासन, संस्कार या बुजुर्गों का अनुदर्शन
हो| पर लोग अब अपने बच्चे को स्मार्ट बनाना चाहते हैं| कुछ पत्थरदिल तो होस्टलों
की चहारदीवारी में बंद कर बच्चों के बचपन का सार्थक भविष्य के नाम पर कत्लेआम कर
दे रहे हैं|
क्या ये दुनिया आज भी उतनी ही वास्तविक दिखती है, जितनी पहले थी? वक्त
बदला और हम आधुनिक भी हुए पर क्या हमने अपनी समझ और बुद्धि खो दी? पश्चिम दर्शन और
दार्शनिकों के को हम पथप्रदर्शक मानने लगे| हमारे विद्वानों की आदर, संस्कार,
सम्मान की भाषा पिछड़ी लगने लगी और उसे ही लगी जिसने इसी माध्यम को अपनाकर सफलता
हासिल की| दर्द देता है ऐसे लोगों का परायापन| क्यों अपनाया हमने पश्चिमी शैक्षणिक
व्यवस्था? देश की शिक्षा तंत्र में अंग्रेजी कान्वेंट स्कूलों की व्यवस्था करने
वाले लोगों को खींचकर लाओ| उसे बचपन में लाकर 10 घंटे तक उसी स्कुल में बिठाओ|
कहाँ हैं हमारे देश में बच्चों के हिमायती? 5 वर्ष का बच्चा 7-8 घंटे
स्कुल में बिताता है, औसतन 2-3 घंटे बसों में गुजारता है और वापस घर लौटकर ट्यूशन
टीचर को झेलता है फिर होमवर्क बनाता है| बच्चों की ये दिनचर्या उसकी मासूमियत को
खाए जा रहा है| बालमन को बर्बाद कर रहा है| चार्ट-पेपर, रंग-बिरंगी तस्वीरों की
स्कूलों से रोजाना डिमांड अभिभावकों पर भारी पड़ रही है| कला के नाम पर या
एक्स्ट्रा एक्टिविटी प्राइवेट स्कूलों की उगाही है|
सरकार एवं तमाम एनजीओ को ‘बचपन का शैक्षणिक शोषण’ मसले पर
विचार-विमर्श करके तत्काल स्कूलों को दिशा-निर्देश दिए जाने की जरूरत है| इस तरह
एक आयोग बनाकर बच्चों की जरूरतों, अभिभावकों की आर्थिक सक्षमता और बालमन की
मासूमियत को ध्यान में रखते हुए कड़े नियमों की दरकार है तभी देश प्रगाढ़ युवाओं के
बदौलत भविष्य में विश्व-नेतृत्व का झंडाबरदार बन सकेगा|
नहीं तो हम हर वक्त ब्रिटेन, अमेरिका के मुंह ताककर नीतियाँ
बनाने वाले बूढ़े से हो चलेंगे...
लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा...
No comments:
Post a Comment