देश में किसानों की हो रही आर्थिक दुर्दशा भविष्य में कृषि क्षेत्र के
प्रति किसानों की बेरुखी गंभीर खाधान्न संकट पैदा कर सकती है| भारतीय अर्थव्यवस्था
में कृषि के योगदान को चुनावी लाभ का अड्डा बना देना बेहद निराशाजनक है| एक कृषि
प्रधान देश में किसानों की आत्महत्या साबित करती है की खेती अब फायदे की जगह घाटे
और मजबूरी का सौदा बनते जा रही है| राजनीतिक रंजिश में किसानों को बलि का बकरा
बनाया जाना सबसे बड़ी भूल साबित हो सकती है|
मंदसौर में किसानों के साथ जो हुआ वो कोई नयी बात नहीं है| अक्सर सरकार
और किसान भिड़ते रहे हैं और अपने हक़ के लिए लड़ने वाला किसान मारा जाता रहा है|
लेकिन महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश से लेकर देश के अन्य खेतिहर राज्यों
में किसान आन्दोलन का बढ़ता दायरा सरकार के लिए संकट पैदा कर सकता है| मतलब साफ़ है
की किसान अब कर्ज माफ़ी और न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसे प्रावधानों को बेअसर मान रहे
हैं| भयंकर सूखे या बाढ़ जैसे हालातों में किसानों को अपने हाल पर छोड़ना भारी पड़
रहा है| प्राकृतिक आपदाओं में किसान फसल बचाने की कोशिशों में पूरी तरह साहूकारों
और सूदखोरों के चुंगुल में फंस रहे हैं| सरकार की फसल बीमा योजना धरातल पर किसी
जुमले से अधिक नहीं दीखता| ऊपर से सरकारी महकमे का शिथिल और भ्रष्टाचारी रवैया इस
योजना में किल ठोक देता है| ऐसा बिलकुल भी नहीं है की इस योजना का लाभ किसी को
नहीं मिल रहा बल्कि इसका लाभ वो लोग उठा रहे हैं जो शिक्षित और संपन्न हैं|
कर्ज के जाल में छटपटा रहे किसानों की हालात बदतर होती जा रही है|
आश्वासनों और कर्ज माफ़ी के वायदों से किसान कब तक अपना पेट भरता रहेगा? कर्ज लेने
की आदत को सरकार दिन प्रति दिन बढ़ावा देती जा रही है| किसान को तो एक किलो प्याज
के पचास पैसे मिल रहे हैं और उपभोक्ता उसे बाजार में तीस रूपये किलो तक खरीद रहे
हैं| ये मुनाफाखोरी सरकार के अस्पष्ट नीतियों के कारण हो रही है| मुनाफाखोरी का ये
खेल स्थानीय नेताओं के इशारों पर होता है जो अंदरूनी तौर पर जमाखोरी और मुनाफाखोरी
को संरक्षित करते हैं| स्थानीय स्तर पर नेताओं का सहयोग न मिलना किसानों के शोषण
के लिए कथित तौर पर जिम्मेदार है|
विभिन्न कृषि वैज्ञानिकों के सलाह को नजरंदाज करके राजनीतिक नफा-नुकसान
हमेशा कृषि-सुधार में अड़ंगे लगाता है| सिंचाई के उचित प्रबंधन के मसले पर अरबों
रूपये बहाने के बावजूद भी खेतों में पानी न के बराबर पहुँच रहा है| सरकार की मौसमी
परिवर्तनों से फसलों को बचने की कोई स्पष्ट योजना अबतक नहीं दिखी है|
वर्तमान मोदी सरकार से किसानों को जो अपेक्षाएं है वो तीन साल गुजरने
के बावजूद भी प्रभावी नहीं दिखती| न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढाकर पीठ थपथपाने के
बजाये सरकार को ये देखना चाहिए की क्या किसान वास्तव में निर्धारित मूल्य पर
खाधान्न बेच पा रहे हैं या उनके अफसरों की मनमानी का शिकार होकर बाजार में शोषित
हो रहे हैं| स्थिति का अंदाजा सभी को है| सरकार की प्रतिबद्धता सभी को ख़बरों में
दिख जाती है और कांग्रेस के वक्त भी दिख जाती थी, पर बदला क्या ये बताना जरुरी हो
जाता है|
कर्जमाफी एक चुनावी हथियार है जिसका इस्तेमाल किसानों को लहूलुहान
करने के लिए उसी के ऊपर किया जाता है| सबका भला हो जाता है, शौक से कर्ज लेने
वालों का भी और किसानों को लुटने वालों का भी| लेकिन किसान से नहीं उबरता और न ही
उबरेगा! कितना भी कोशिश कर लीजिये, कर्ज बाँट दीजिये फिर भी उसे आत्महत्या ही करना
होगा| चमचे की नज़र में शौक हो सकता है पर वास्तव में वो मिट्टी के लिए दी गई
कुर्बानी का एक उदाहरण बन जाता है|
खूब आयात कीजिये! सब बाहर से मंगवाइये! सस्ता पड़ता है
और भारत बाजार के रूप में बड़ा भी बनता है! निवेशक आते हैं उससे खूब टैक्स वसुलिये,
जनता का उद्धार कर दीजिये! किसान की क्या जरुरत है देश में! स्मार्ट बनो, खेतों
में बिल्डिंग बनाओ, कंक्रीट के जंगल उगाओ और खाने के लिए भिखमंगे बन जाओ!
फिर देखो विकास किसे कहते हैं!...
लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com)
के लेखक हैं... ब्लॉग पर आते रहिएगा...
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