आगामी कुछ महीनों में
बिहार विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में तो स्वाभाविक है की, राजनीतिक दल मतदाताओं के
ह्रदय-सम्राट बनने की पुरजोर कोशिश करेंगें। संभव है की शहर को पोस्टरों, बैनरों से पाट दिया जाएगा।
चौक-चौराहों पर भोंपू लगे वाहन तमाम ध्वनि प्रदुषण की नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर, अपने नेता को सर्वश्रेष्ठ
घोषित करने में लग जायेंगें। लेकिन कभी कोई समाजवाद के नुमाइन्दे, इसकी जरूरतों के बारे में
जनता से क्यूँ नहीं पूछते? चुनाव
आयोग के तमाम कोशिशों के बावजूद भी पोस्टर-बैनर पर रोक नहीं लगाई जा सकी है। ऐसा
क्यों? दूसरे
दलों से बेहतर चुनाव प्रचार की प्रतिस्पर्धा, जनता की सुविधा-असुविधा से मीलों दूर निकल जाती है। राजनीतिक दलों के
प्रचार के बेतरतीब तौर-तरीकों से कुछ हासिल नहीं होने वाला। ये सभी जानते हैं.. पर
एक करे और दूसरा बैठा रहे, ये भी
नहीं हो सकता। आरोप-प्रत्यारोप तो राजनीति का एक पहलु तो है ही, लेकिन इस तरीके के व्यव्हार
से निश्चित तौर पर लोकतंत्र की सुंदरता घटेगी।
हालात ये
हैं की अभी से ही शहर के तमाम स्ट्रीट लाइटों, बिजली के खम्भों पर राजनीतिक दलों के झंडे-पताके लहरने शुरू हो चुके
हैं। हद तो ये है की अगमकुआं, कुम्हरार, बहादुरपुर आदि ओवरब्रिजों
की दीवारों को एक ही नारे से सारे जगह रंगकर भर दिए गए है। क्या ऐसा करने से वो
जनता को आकर्षित कर लेंगे? बिलकुल
नहीं। अगर चुनाव पोस्टर-बैनरों और नारों से ही जीते जाते तो मतदाताओं का महत्त्व
ही क्या रह जाता? लोकसभा
चुनावों में जिस तरीके से पैसे बर्बाद किये गए, क्या वो एक चेतावनी नहीं है? जितने पैसे प्रचार में खर्च किये जाते हैं, क्या सारे दल मिलकर ये नियम
नहीं बना सकते की इनसब पैसों का झुग्गी-झोपडी या रेहरीवाले जरूरतमंद गरीबों के
उत्थान में खर्च किया जा सके। मात्र उनलोगों के ऐसा करने से ही, जनता के बीच कितना अच्छा
सन्देश जाता। साथ ही लोगों का विश्वास और भी दॄढ़ होता, की चाहे जो भी जीते, वो निश्चित उनकी भलाई के
लिए तत्त्पर रहेगा।
बकायदा, सारे राजनीतिक दलों को
पोस्टर-बैनर राजनीति पर गौर से विचार-विमर्श करके, जरूरी कदम उठाये जाना चाहिए ताकि हमारा लोकतंत्र, सफल लोकतंत्र की दिशा में
और भी मजबूती के साथ आगे बढ़ता रहे. . . .
लेखक - अश्वनी कुमार, पटना , जो एक
स्वतंत्र टिप्पणीकार बनना चाहता है. .
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add:- ashwani4u.blogspot.in
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