यह सवाल दशकों से देश के
पढ़े-लिखे नौजवानों को चिंतित करता रहता है। पढ़ने-लिखने में अच्छे होने के बावजूद
भी करोड़ों नौजवानों को नौकरियाँ नहीं मिल रही। सरकारी विभागों की तरफ से 2-3 साल में जो नाममात्र की
रिक्तियां निकाली जाती है, उस पर
परीक्षा माफियाओं की पैनी नज़र होती है। परिणाम क्या होता है? योग्य उम्मीदवार रहने के
बावजूद भी अयोग्यों की पूजा होने लगती है। आख़िरकार उन्हें नौकरी दिलाने वाले आकाओं
ने अफसरों की तमीज से पूजा-पाठ जो की है। कौन कहता है की पैसे से सब कुछ नहीं
ख़रीदा जा सकता? हम
छात्रों के लिए तो सबकुछ का मतलब ही नौकरी है। ये नौकरियां भी आजकल रियल-एस्टेट
कारोबार की तरह कमसिन हो गयी है। एक बार माँ-बाप की जमा पूँजी इस सेक्टर में
इन्वेस्ट कर दो, फिर
जिंदगी भर मौज करो। कार, बंगला, पेंशन, ऐसो-आराम व 10-15 लाख देने
वाले की सुन्दर बेटी।
ये हालत
हो गयी है, हमारे
देश के शिक्षा व्यवस्था की। अंग्रेज तो भारत पर अपनी नौकरी आधारित शिक्षा व्यवस्था
थोपकर चले गए, क्योकि
वे तो गैर थे। लेकिन उसी व्यवस्था का 67 सालों से अनुसरण कराने वाले तो हमारे अपने हैं। शायद सही कहा गया है
की "हमें अपनो ने लूटा, गैरों
में कहाँ दम था। ये हमें पिछले 67
सालों से नौकरी के नाम पर वोट लूटते रहे है और हम अपने को लूटने देते
रहे, यही
विडम्बना है। कोई सरकार क्यों नहीं इसपर अपनी मजबूत इच्छाशक्ति दिखाती? क्या हमारी सरकार
अंग्रेजियत की इतनी गुलाम हो गयी है की वो विदेशी भाषाओं, विदेशी कानूनो को बाहर का
रास्ता नही दिखा सकती? 10 साल
अंग्रेजी सिखने में बर्बाद करो,
फिर पूरी जवानी इतिहास-भूगोल याद करने में। फिर भी इसकी कोई गारंटी
नहीं की आप सर्विसमैन कहलाओ, हाँ अगर
आप के पास पैसे ना हो तो। नौकरी के लिए महामारी सी स्थिति पैदा हो चुकी है। ये
सिर्फ सरकारी नौकरियों के बारे में नहीं है, बल्कि प्राइवेट व अन्य संस्थानों की भी यही स्थिति है। अनियंत्रित
जनसँख्या वृद्धि का असर दिखने लगा है, जहाँ 500 पद के
लिए 20 लाख
फॉर्म भरे जा रहें हैं। उसमें भी आधे पद माफियाओं के लिए आरक्षित होती है। कर
डालिये, अपनी
सेक्युलर नीतियों से भारत को चीन से आगे। तभी तो 500 पद के लिए 50 लाख फॉर्म बिकेंगे, जिससे आपको अधिक राजस्व
आएगा।
कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो, देश की प्रगति में अयोग्य अफसर बड़ी रूकावट हैं। विभिन्न विभागों में
जैसे, गृह
मंत्रालय, मंत्रालय, वित्त मंत्रालय आदि जिन्हे
देश के विकास के लिए तेज-तर्रार अफसरों की जरूरत होती है, वहां फ़िलहाल भोंदे अफसर व
कर्मचारियों की भरमार है। किसके कारण? अफसरों को नियुक्त करने की जबावदेही सरकारी आयोगों की होती है। क्यों
नहीं ऐसे आयोगों पर कड़ी कार्रवाई की जाए, जिसकी उदासीनता के कारण योग्य उम्मीदवार अपने अधिकार से वंचित रह
जाते हैं। हाल ही में कर्मचारी चयन आयोग ने संयुक्त स्नातक स्तरीय परीक्षा को 3 बार रद्द किया फिर भी उसके
रिजल्ट पर उँगलियाँ उठी। बिहार सिपाही भर्ती परीक्षा में सफल अभियर्थियों से जब
ट्रेनिंग के दौरान राज्यपाल का नाम, जिले की संख्या पूछी गयी तो हकीकत सामने आ गयी। क्या ऐसा आयोग
कार्रवाई योग्य नहीं हैं, जिनके
अपने ही अफसर परीक्षा माफियाओं से सांठ-ग़ांठ रखते हैं? कई बार तो राजनीतिक
हस्तक्षेप की भी बात सामने आती है। मध्य प्रदेश व्यापम घोटाला तो किसी चूक की वजह
से सामने आ गया, नहीं तो
कितनी ऐसी परीक्षाएं और नियुक्तियां हो भी गयी है, और हो जायेगी, लेकिन किसी को कोई पता नहीं चलेगा।
ऐसे देश में कई आयोग व भर्ती परीक्षा बोर्ड है जो नौकरी के नाम पर
करोड़ों-अरबों रूपये का कारोबार कर रही है। नतीजन, युवाओं में घोर निराशा की स्थिति पैदा हो चुकी है, आत्महत्या के मामले बढे
हैं। इस स्थिति में वर्तमान सरकार व कोर्ट को सामने आकर इस दोषपूर्ण प्रणाली में
व्यापक सुधर करनी चाहिए। मैं नहीं, तमाम विशेषज्ञ ये मानते हैं की सरकारी नौकरी के लिए भाग-दौड़
वजह इसमें मिलने वाली सुविधाएँ व समाज में इज्जत है। सुविधाओं में कटौती
करके उन्हें 'खास' से 'आम' बनाने का रास्ता ज्यादा
सुलभ हो सकता है। संभव तो नहीं,
लेकिन इसकी शुरुआत हमारे प्रधानमंत्री जी को करना चाहिए।
लेखक:- अश्वनी कुमार, एक छात्र जो एक स्वतंत्र टिप्पणीकार बनना चाहता है।
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