बिहार
विधासभा चुनाव की तैयारियां जोरों पर है। अगले कुछ दिनों में चुनाव आयोग इसकी
घोषणा कर सकता है। सभी पार्टियां धर्म-जातिवाद व सम्प्रदाय के नाम पर वोटों की
लामबंदी में जुटे है। बिहार का पिछले दो दशक के राजनीतिक जातिवादिता का इतिहास
देखें तो मंडल और कमंडल की बिसात पर दो धुरी नज़र आती थी। जातिवाद और आरक्षण जैसे
नारों से गरीब सवर्णों और पिछड़ों को हाशिये पर लाने की जो खेल खेला गया, उसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। खुद
को पिछड़ों का हितैषी बताते-बताते बिहार के पिछड़ों की उन 15 सालों में कितनी तरक्की कर दी, ये साफ़ है। पर इन अगले 10 साल में बिहार की जनता ने जिसे नकार
कर राज्य की कमान दी, वह तो सिर्फ विकास की बात करते थे।
नीतीश पहले मंडल खेमे के सक्रिय नेता थे, पर
बड़ी आसानी से उन्होंने मंडल से कमंडल और कमंडल से मंडल तक की यात्रा कर डाली।
राजनीतिक उछल-कूद के माहिर नेताओं की नज़र अल्पसंख्यक वोटों पर तो काफी पहले से ही
है, पर वे इसमें सफल हो जायेँ इसकी कोई
गारंटी नहीं। हम सभी ने लोकसभा चुनावों में वोटो का ध्रुवीकरण होते देखा है।
जब
लोकतंत्र में वोट धर्म और जातिवाद के नाम पर माँगा जाता है तो, वो लोकतंत्र की हत्या का प्रयास होता
है। लेकिन जब लोकतंत्र में मत धर्म या सम्प्रदाय देखकर दिए जाते है, तब लोकतंत्र मर जाता है। क्योकि उस
वक्त उसकी आवाज सुनने वाला कोई नही होता। न जाने हमलोगों ने कितनी बार ऐसी
परिस्थितियों को उत्पन्न होते देखा है । जो तरीके अल्पसंख्यक वोटों की लामबंदी के
लिए अपनाये जाते है, वे सारे तरीके बिहार विधान सभा चुनाव
में अपनाये जा रहें है। लोकसभा चुनाव के पहले देश के तथाकथित सेक्युलर नेताओं ने
दिल्ली में एक धर्मनिरपेक्ष सभा की थी, जिसमे
लालू-नितीश-मुलायम और ममता के अलावा कई बड़े नेता शामिल हुए थे। लेकिन लोकसभा चुनावों
में इन सभी का पूरी तरह सफाया हो गया। अब खबर है की लालू-नीतीश और मुलायम मिलकर
पटना में सभा करने वाले हैं, और
केजरीवाल भी इसमें शरीक हो सकते हैं। केजरीवाल को दिल्ली चुनावों के बाद भाजपा के
काट के रूप में देखा जाने लगा है।
पर
लालू और नीतीश, जिस अल्पसंख्यक वोटों को अपना मानकर
जीत सुनिश्चित मान रहे थे,
उनकी चिंता मुसलमानों के कद्दावर नेता
असदुद्दीन ओवैसी किशनगंज में रैली करके
बढ़ा दी है। माना जा रहा है की रैली में भारी भीड़ उमड़ने और सीमांचल के इलाके में 25 सीटों पर ओवैसी के चुनाव लड़ाने की
संभावना से अल्पसंख्यक वोटों में भगदड़ जैसी स्थिति बनेगी। क्योकि वे सारे वोट
महागठबंधन को जा सकते थे। इससे साफ़ है की फायदा किसे होगा?
भाजपा
को! जदयू और राजद ओवैसी को बिहार लाने के पीछे बीजेपी की चाल मान रही है। इधर RJD पप्पू यादव की सक्रियता से ख़ासी आशंकित
है, की कहीं वो यादव वोटों में सेंध न लगा दें।
कुल
मिलाकर अगर देखा जाए तो बिहार में वोटों की सेंधमारी के तौर-तरीकों से जो तस्वीर
उभर कर सामने आ रही है, वो निश्चित ही लोकतंत्र के लिए अघोषित
कलंक है। भले ही कोई नेता या पार्टियां ऐसी तरकीबें अपनाकर जीत जाती हो या जनता का
विश्वास अपने प्रति घोषित कर देती हो, लेकिन
वैसी जीत व सत्ता हासिल कर लेने से क्या फायदा? जहाँ
लोग वोट के लिए अपनी जाति बदलने से भी परहेज नहीं करते! जहाँ कोई किसी को अपना
मानने को तैयार नहीं। उन्हें अपने आने वाली पीढ़ियों में वही गुण या दोष देखने के
लिए तैयार रहना पड़ेगा, जिससे वे आज खुद जूझ रहे हैं। कैसा
बनाएंगे हमारे ये नेता भविष्य का भारत, अपने
सपनों का बिहार? क्या बिहार की बोली लगा देने से इस बिहार के सारे दुःख हर लिए जा
सकते हैं, या वे सोंचते हैं की एक दूसरे को कोसते
रहने-पोस्टर लगा देने से मतदाताओं को आकर्षित कर लेंगे? बिल्कुल नहीं! जो भी बिहार की वर्तमान
राजनीतिक परिस्थिति में घटित हो रहा है, वे
बिलकुल गलत है। ऐसे में उच्चतम न्यायालय व चुनाव आयोग को आगे आकर जरूरी चुनाव
सुधार करने की सख्त दरकार है, ताकि
जाति-धर्म के नाम पर लोकतंत्र को जकड़ने का प्रयास न हो।
लेखक:- अश्वनी कुमार, ब्लॉग पर "कहने का मन करता है..." पेज के लेखक है।
address:- ashwani4u.blogspot.in
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