04 February 2016

संघ के हौंसले पस्त क्यों?

राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ अपने 90 साल के इतिहास में एक कड़क, दृढ़ और पूर्ण समर्पित राष्ट्रभक्त की अपनी छवि एकसमान बरक़रार नहीं रख पाया है| संघ की निस्वार्थ सेवा व उसकी मंशा पर कोई देशभक्त सवाल नहीं खड़ा कर सकता, इतना तो तय है| भारतवर्ष के इतिहास में पहली बार जनता ने परोक्ष रूप से शासन चलाने का आदेश दिया पर इन दो वर्षों में संघ व उनके स्वंसेवक नेता अपनी दृढ़ता एक बार भी साबित नहीं कर पाए हैं| कोई चाहे या न चाहे फिर भी सबको पता है की संघ जाति, धर्म या रंग के आधार पर भेद नहीं करता यह शाश्वत है| लेकिन संघ के इस शासन के दौरान दर्जनों ऐसी घटनाएं सामने आई जिसके सामने संघ या भाजपा को अपनी मजबूत इच्छाशक्ति दिखानी चाहिए थी, बजाए की वह मुद्दे पर रक्षात्मक रवैया अपनाए| इन सभी के कारण बीजेपी से ज्यादा संघ की बदनामी हुई|

सबसे पहले की जम्मू-कश्मीर में इसके स्वंसेवक मोदी एंड कंपनी ने ऐसा स्टैंड लिया, जिसकी अपेक्षा न तो कोई संघ से कर सकता था और न ही मोदी से| इस राजनीतिक अपरिपक्वता का परिणाम दिखने भी लगा है| दूसरा, दादरी घटना पर सरकार का मौन धारण कर लेना स्वंसेवकों को शर्मिंदा कर गया| संघ से जुड़े लोग चिल्लाते रहे की केंद्र सरकार इस घटना पर अपना दब्बूपन दिखाने के बजाए विपक्ष के ऊपर आक्रामक होकर इस घटना के लिए यूपी सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाए, संसद में राज्य के कानून-व्यवस्था न चला पाने का निंदा प्रस्ताव पास करे| लेकिन कोई नहीं सुना... सब पीएम को बचाने में जुटे रहे| मालदा जैसी घटना पर सरकार की शिथिलता से बेशक उनकी लुटिया डूबेगी और अगली बार तो युवा हिन्दू नौजवान संघ की भी नहीं सुनने वाला| बिहार में ऐसे संकेत मिल भी चुके हैं और यूपी में कुछ ऐसा ही होना वाला है|

ऐसी-ऐसी दर्जनों घटनाओं के ऊपर केंद्र और संघ जैसे को तैसा या आक्रामक फैसले लेने की जगह रक्षात्मक रवैये में नजर आई| सरकार कई मौकों पर तो विपक्ष से डर कर फैसला पलट चुकी है| मैं पहले भी कहता रहा हूँ की भाजपा के 17 करोड़ वोटर मिस-कॉल के सहारे टिके नहीं रह सकते| उन्हें कुछ कर के दिखाना होगा, उम्मीद पैदा करनी होगी, भरोसे में रखना होगा| 2014 का माहौल जहाँ देशवासी गुस्से से उबल रहा था और एक ऐसे जलते दिये पर अपना भरोसा जाता रहा था जिसपर आंधी-तूफ़ान झेल लेने का भरोसा था| उन सब में सचमुच का एक सेक्युलर राष्ट्र बना देने का कल्पना भी साथ था, जहाँ कोई फैसले धर्म देखकर न लिए जाएँ| हिन्दूओं का मंदिर बनना चाहिए तो मुसलमानों का मस्जिद भी| कुरान की इज्जत होनी चाहिए तो गीता की भी इज्जत हो| ऐसा नहीं होता की किसी के भगवान् को सरेआम गाली दो सही और अगर वो कुछ वैसी ही तारीफ़ करे तो सड़क पर उतर कर कट्टरता दिखाने का झूठा नाटक वो भी अपने ही गली में...

संघ की शिथिल पड़ती अपनी दृढ़ता को संवारने की जरूरत है और भी वक्त रहते| नहीं तो फिर से यही कहा जाएगा की हम हिन्दूओं को राज करना नहीं आता...

लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... ब्लॉग पर आते रहिएगा...


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