इस संसार में रहनेवाले अधिकतर लोग नारी शक्ति की जटिल मस्तिष्क की
गुत्थी सुलझाने में खुद को असमर्थ पाते हैं| सुलझाना तो दूर उसे समझ लेना भी
पतियों के लिए मंगल ग्रह से यात्रा करके वापस लौट जाने के समान है| सुखी-संपन्न
देशों में ख़ास करके पुरुषों में हाइपरटेंशन या तनाव जैसी बीमारियों की जड़ पत्नियों
से होने वाली रोज-रोज के विवाद है| फिर भी तो हमारे इंडिया में हम हिन्दुओं को
छोड़कर बाकी धर्मों के लिए वैवाहिक क़ानून बेहद लचीले हैं, और हिन्दुओं के लिए?
सोंचना ही मुर्खता है! नारी सशक्तिकरण लिए देश में बहुत सारे फेमिनिस्ट अलग-अलग
संगठन बनाकर महिलाओं के बेहतरी के लिए, उत्थान के लिए झूठी आवाज बुलंद करते हैं|
चीखते है, चिल्लाते हैं और फिर एकाएक चुप होकर बैठ जाते हैं| किसे दबाव में? किसके
पक्ष में और किसके लिए? जानता सब है लेकिन कोई नहीं बताता!
हमारी सरकार ने देश और राज्य स्तर पर महिला आयोगों की स्थापना की, देश
के लगभग हर एक जिले में महिला थाना बनाने की सफल कोशिश की है| लेकिन महिला थाने तक
अपने पति के परिवार को घसीटने वाली 80 फीसदी महिलायें अपने अधिकार का गलत इस्तेमाल
करती है| देश के सामाजिक-पारिवारिक बंधन से इतर होकर आजकल की महिलायें घर में अपना
शासन चलाना चाहती है, जॉइंट फॅमिली से उसे नफरत होने लगी है तो वहीँ चाहती है की
उसका पति हर चीज उसी की निर्देश से करे| ऐसा नहीं है की महिलाओं को उसके अधिकार से
वंचित रखा जाना चाहिए या उसे पुरुषों के बराबर नहीं होने देना चाहिए| बल्कि मैं तो
चाहता हूँ की नारी सशक्तिकरण का लक्ष्य पुरुषों से भी ज्यादा ऊंचाई हासिल करने की
हो, इसके लिए हमारे संविधान ने उन्हें काफी अधिकार भी दिए हैं| लेकिन सिर्फ हिन्दू
महिलाओं को ही| क्या मुस्लिम या अन्य धर्म का पालन करने वाली हर एक नारी की
अधिकारों को एक किताब या सिद्धांत के धकोंसले के बलबूते उसकी मौलिकता का हनन हो? क्यूँ
इसके लिए कभी कोई आयोग नहीं बनायीं जाती?
रही बात पहनावे की तो आजकल की महिलायें जींस-टीशर्ट पहनकर पुरुषों की
बराबरी करना चाहती है, लेकिन मैंने तो कभी नहीं सुना की जींस-टीशर्ट पहनने से
लड़कियां इतिहास रच लेती है, या कोई बड़ा मैदान मार लेती है| अगर ऐसा होता तो रानी लक्ष्मीबाई ने रणभूमि में जींस-टीशर्ट
तो नहीं पहना था फिर भी कैसे जीत गयी? इंदिरा गाँधी, सरोजनी नायडू, विजयलक्ष्मी
पंडित या फातिमा बीबी जैसी सफल महिलाओं ने तो जींस-टीशर्ट पहनकर इतनी उंचाई हासिल
नहीं की बल्कि ये सभी व्यवहारीक वस्त्र ही पहनती थी...
ऐसा नहीं है की हर घरेलु झगड़ों में सिर्फ महिलायें ही दोषी होती है|
समाज में मैंने अबतक अपने जीवन के 19 वसंत की अनुभवहीन अवधि बिताई है फिर भी काफी
कुछ देखा और सिखा है| मैंने समाज में बहुत सी नारियों
को देखा जिन्होंने दुसरे का घर बर्बाद कर रखा था और कई मर्दों को भी जिन्होंने
अपनी पत्नी का जीना दूभर कर रखा था| लेकिन हैरानी ये थी की हर एक ऐसे बिगरैल
पतियों की डोर किसी न किसी महिला के हाथ में जरूर थी जो उसे मनचाहे तरीके से नचा
लेती थी|
बीबियों का गुलाम बन जाना हम मनुष्यों को वरदान तो नहीं फिर भी हम
हिन्दुओं की फितरत जरूर है| चाहे क़ानून के डर से, समाज के डर से या बीबी के ही डर
से लेकिन हम गुलाम बन जाते हैं| मुझे समझ नहीं
आता की गलती किसकी है? इसलिए की हिन्दू
धर्मं किसी एक किताब के सहारे नहीं टिका है, किसी ख़ास सिद्धांत पर नहीं चलता या
इसलिए की हिन्दू धर्म को दिशा दिखाने वाला संसद, नेता या सुप्रीम कोर्ट के अलावा
कोई नहीं है? कभी औरों पर भी चाबुक चलाकर देखिये! इसके बाद
सहिष्णुता की परिभाषा वही समझायेंगे...
लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
आते रहिएगा...
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