फ़िल्मी दुनिया का ग्लैमर मायानगरी से दूर रहनेवाले लोगों को बहुत
सुहाती है| खासकर के युवाओं को इस दुनिया में रचने-बसने और इसे करीब से देखने का
सपना होता है| लेकिन एक पुरानी कहावत है की ‘दूर का ढोल सुहावन होता है’, यानी जो
चीज हमारे पास नहीं होती या हम से दूर होती है वो बहुत आकर्षक लगती है| ठीक इसी
तरह फिल्म इंडस्ट्री की मायानगरी मुंबई बाहर से जितनी आकर्षक दिखती है, अन्दर से
है उतनी ही घिनौनी| एक्टिंग के नाम पर प्रतिभा का शोषण,
झांसा, प्यार-मोहब्बत या धोखा होना वहां आम बात है| एक आम इंसान फ़िल्मी दुनिया का
चमकता सितारा बने, डायरेक्टर-प्रोडूसर के आँखों का तारा बन जाए तो समझ लेना चाहिए
की उस अदाकार या अदाकारा ने जिन्दगी की हर सही-गलत बातों का मूल्य चुकाया है|
बगैर फ़िल्मी खानदान के सिर्फ एक्टिंग के दम पर बॉलीवुड में धाक जमा
पाना अपवाद की श्रेणी में आता है| ग्लैमर की चमक में युवा प्रतिभा गुम सी होती जा
रही है| रंगमंच या नाटक अकादमियों में प्रस्तुति देने वाले अदाकार या अदाकारा
बॉलीवुड के तमाम नामी-गिरामी एक्टरों से उनकी एक्टिंग की गुणवत्ता काफी अच्छी
दिखती है| रंगमंच के कार्यक्रमों में भावपूर्ण
अदाकारी बेहद मुश्किल दिखती है| बेहतरीन टाइमिंग, अर्थपूर्ण भाव या शाब्दिक
मर्यादा उसे और बेहतर बना जाती है| जहाँ गलती की गुंजाइश भी न के बराबर होती है|
इसलिए भी की वहां न तो रिसुट या रिटेक की कोई गुंजाइश होती है और न ही उनकी
प्रतिभा को कैमरे का कमाल कह सकने की कोई शंका| रंगमंच की कला समाज का
हर अच्छी-बुरी बातों को बिलकुल सहज ढंग से अपने दर्शकों पर साकारात्मक प्रभाव
डालती है और बॉलीवुड से कही ज्यादा| क्यूंकि फ़िल्मी बातों को अक्सर लोग काल्पनिक
सच बताकर पल्ला झाड लेते हैं|
फ़िल्मी ग्लैमर की धाक हीरो-हीरोइनों को एक रियल लाइफ हीरो की तरह पेश
करती है, युवाओं के मन-मस्तिष्क में एक अलग छवि की पैठ बना लेती है| एक्टिंग को
टैलेंट का नाम देने वाले, देश के युवाओं को समाज सँभालने की जगह नग्नता, क्रूरता
या धोखाधड़ी का अंदाज सिखा रहे हैं| मनोरंजन का हवाला देकर देश को तोड़ने की साजिश
ऐसी रची गई की आज हर एक आम युवा एक गर्लफ्रेंड बना लेने का जूनून लिए आगे बढ़ रहा
है या उसकी चाहत रखने लगा है| फिल्में देख-देख कर असली जिन्दगी में उसकी नक़ल
उतारने लगा है| उसी अंदाज में जहाँ वो घिनौनी करतूत करता है वैसे ही क्राइम करके
बच निकलने का भरोसा बना लेता है| एक रिसर्च की मानें तो अपहरण करने में अपनाई गई
90 फीसदी तकनीक या अंदाज फिल्मों से प्रेरणा लेकर रची गई|
फिल्मों में पहले तो प्रेम की सीमाएं ख़त्म हुई| फिर उसे इस
हद तक तोड़ा गया की ख्वाहिश, मर्डर, आशिक बनाया आपने, जैसी फिल्मों ने तो युवाओं
में सनसनी मचा दी| युवा कुछ वैसा ही करने की सोचने लगे| लोग सोंचते हैं की हीरो या हीरोइनों की
जिन्दगी काफी इज्जत और प्रतिष्ठा भरा है या आरामदायक है पर हकीकत में है नहीं|
निर्देशक उनके मेहनताने को यूँ खैरात में नहीं देते| उन्हें धुप-सर्दी-गर्मी, रात,
दिन कभी भी काम करना पड़ता है| दर्शकों के लिए अंग-प्रदर्शन उनकी काम का ही एक मामूली हिस्सा है| नई हेरोइनें तो प्रचलित होने के लिए सारी हदें पार कर जा रही
है| अगर सीधे शब्दों में कहें तो अंग-प्रदर्शन से ही आजकल फिल्मों में एंट्री हो
रही है, जहाँ शर्म-हया जैसे शब्द बीच में भी नहीं आने चाहिए| मैं किसी हेरोइन का
नाम नहीं लेना चाहता|
तो कुल मिलाकर फिल्मों की दुनिया और उसके लोगों ने औरों से अलग
मनोरंजन के नाम पर एक नई दुनिया बसा ली है| अथाह
पैसे, दर्शकों का प्यार, हीरो के संग रोमांस और डायरेक्टरों के धोखे के सम्मिश्रण
ने उनकी जिन्दगी बेहद नारकीय बना दी है| फिर भी अपने देश मैं पैसे वालों की ही पूछ
है चाहे पैसा किसी भी तरह आया हो... जिस्म दिखाकर या ईमान बेचकर...
लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा...
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