हमने बिहार के पंचायत चुनावों में बंदूक के दम पर चुनाव लड़ते और जीतते
उम्मीदवार देखे हैं| बंदूक के दम पर बूथ कैप्चरिंग होते देखी है तो वही गोलियों की
तरतराहट के बीच वोगस वोटिंग और पुलिसकर्मियों को कोने में दुबकने की हकीकत देखी
है| इन दबंगों की दबंगई रोकने के लिए सरकार ने वार्डवार, पंचायतवार हर एक पद के
लिए आरक्षण की व्यवस्था की, जो प्रशंसनीय है| मुखिया के पद को दबंगों से छिनकर
किसी पिछड़े या जनजातियों के हाथ में दिया गया| अब पुरुषों का वर्चस्व कम करने के
ख्याल से अधिकतर पदों को महिला आरक्षित कर दिया गया है| बिहार के 2001 और 2006 का
पंचायत चुनाव भारी अराजकता भरा रहा| 2001 का तो
दृश्य थोडा ही याद है लेकिन 2006 चुनाव की तस्वीरें अभी भी मेरे जेहन में ताज़ा है
की किस तरीके से कंधे में एके-47 टांगकर वोट मांगे जाते थे या हाथ में देशी-विदेशी
राइफल लिए और कमर में चमचमाती सुनहरी गोलियां की बेल्ट पहने आठ-दस लोग चुनाव
प्रचार के नाम पर आते और किसी ख़ास को ही वोट डालने का अनुरोध नहीं बल्कि, आदेश
देकर जाते थे| ये कोई नक्सली नहीं थे लेकिन दबंग जरूर थे, दर्जनों
हत्याओं के दोषी थे| चुनाव का परिणाम लोगों को पहले से पता होता था, नतीजा लोग
उनलोगों से दुश्मनी मोल न लेकर वोट उन्हें ही दे देते थे|
अब की स्थितियां काफी बेहतर हुई है| दबंग हाथ में एके-47 की जगह जनता
के सामने हाथ जोड़े नज़र आते है, विनती करते है| पहले चुनाव आते ही हत्या, रंगदारी
की घटनाएं बढ़ जाती थी| बिहार में कानून का राज दिखता है, कहीं दिखे या न दिखे
चुनावों में बेशक दिखता है| गुंडों के खिलाफ सिर्फ गुंडे ही चुनाव लड़ने का साहस
दिखा पाते थे, लेकिन अब स्थितियां पलटी है, लोग बेहिचक नामांकन दाखिल करते हैं और
बेख़ौफ़ चुनाव लड़ते हैं|
ग्राम पंचायत के मतदाता शहरी मतदाताओं की तुलना में काफी जागरूक नज़र
आते हैं| शहर में राशन या तेल 3-4 महीने भी न बंटे
तो लोग हल्ला नहीं करते, मगर गांवों में एक महीने की भी राशन कोई पचाने की सोंचें
तो हंगामा मच जाता है, डीलरों पर शिकायत कर दी जाती है| मनरेगा, इंदिरा आवास या
पेंशनों में धांधली तो जमकर होती है लेकिन, किसी का हक़ पचा पाना बेहद मुश्किल काम
है| मतलब, निष्कर्ष निकलता है की देश के ग्रामीण इलाकों के मतदाता शहरी मतदाताओं
की तुलना में ज्यादा सजग और जिम्मेदार हैं| शहरों में कोई अपने नेताओं
को खरी-खोटी सुनाने से मतलब नहीं रखता जबकि गांवों में नेताओं के जाते ही महिलाएं
अपने अधिकारों के लिए टूट पड़ती है और बदहाली का सारा गुस्सा निकालती है| चाहे वो
स्कूलों का मसला हो या फिर योजनाओं का| ये बहुत अच्छी बात है की बिहार की ग्रामीण
परिवेश की महिलाएं देश में सार्वधिक अनपढ़ होने के बावजूद भी अपने अधिकारों के लिए
जागरूक हो रही है| पढ़ी-लिखी महिलाओं से काफी ज्यादा, जो एक शुभ संकेत है|
पंचायत चुनाव में पिछड़ों और जनजातियों के लिए लागू आरक्षण व्यवस्था का
कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल पाया है| दबंग निचली जातियों
के उम्मीदवारों को खड़ा कराकर उनके लिए अपना वोट मांगते है, पैसे खर्च करते है|
मतलब की उसे उसके जितने के बाद असली मुखिया वही रहे और पंचायतों की विकास योजनायों
की मलाई चाटते रहे, ठेके में दलाली कमाते रहे| इन रबर स्टाम्प प्रतिनिधियों को
हमेशा एक नीच का तगमा लगा रहेगा और वो इसलिए की पंचायत के लोग किसी काम के लिए उस
बेचारे के पास न जाकर उनके मालिक के पास जाता हैं, मतलब उनकी कोई हैसियत नहीं| कुल
मिलाकर इन गरीबों-शोषितों के लिए मुक्ति का कोई मार्ग नहीं| इसलिए सरकार
पंचायतों में आरक्षण व्यवस्था को कड़ाई से लागू कराये| हकीकत की जांच-पड़ताल करे...
(ये मेरे निजी अनुभव
हैं क्यूंकि मेरा परिवार पंचायती राजनीति में खासी सक्रिय रहा है... वार्ड मेम्बर,
पैक्स, पंच और उपसरपंच जैसे पदों को हमने शोभित किया है)
लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा...
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