मराठवाडा, लातूर, बुंदेलखंड और बाड़मेर जैसे क्षेत्रों में पानी की
हाहाकार मुझे इतनी दूर बैठे होने के बावजूद भी कंपकंपा गया| कहीं लोग सूखे घड़े
लेकर टैंकर के इंतज़ार में बैठे हैं तो कहीं कोई छटपटाहट में नदी के बालू खोदकर लोटे
में पानी जमा कर रहा वो भी पीने के लिए, नहाना या कपडे धोना दूर की बात है| देश के
अधिकतर राज्यों का भूमिगत जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है| बोरिंग, हैण्डपम्प सब
हांफ रहे हैं| नदियाँ भूमिगत जल को रिचार्ज करने में असफल हो रही है| क्या प्रकृति
का यह संकेत भविष्य में किसी बड़े खतरे या हाहाकार मचने की तरफ इशारा नहीं कर रहा?
साधारण सी बात है, पहले हमने प्रकृति से रूठना, उसकी विरासत का दोहन करना शुरू
किया था और अब प्रकृति कर रही है|
हमें समय पर वर्षा चाहिए, सालों भर नदियों में पानी चाहिए,
शुद्ध हवा चाहिए, स्वच्छ पानी भी चाहिए| पर, हम वनों को काटते रहेंगे, कंक्रीट के
जंगल उगाते रहेंगे, मूक पशुओं का घर उजाड़ते रहेंगे| यही नहीं हम नदियों को खोदकर
बालू भी निकालेंगें, पहाड़ों को भी तोड़ेंगे, बाँध बनाकर पानी भी रोकेंगे और प्रकृति
की सारी भूभर्ग सम्पदा को बेचकर उसका दोहन करेंगे| प्रकृति के साथ नाइंसाफी के बाद
भी हम मुर्ख मानव सबकुछ पहले जैसा चाहते हैं| सरकार को बुलेट ट्रेन की जगह पानी ढोने
वाली ट्रेन चलानी पड़ती है इसलिए की उसकी सारी विकासवादी मशीनरी फेल हो गयी| कर
डालो देश का विकास| काट डालो पेंड-पौधे और बना डालो हाइवे, आलिशान भवनें| और लोगों
को बताओ की फिर इन सड़कों पर बनने वाली पानी की मिर्गमिरिचिका को देखकर अपनी प्यास
बुझा लें|
सरकार को क्या, इस देश के मशीनरी को क्या? भुगतेंगें तो आम लोग| आबाद
भूमि को रेगिस्तान बनते देखेंगें| अब तो भगवान भी नहीं सुनने वाला| क्यूँ सुने वो
सबकी? क्या हम उसकी सुनते हैं? नहीं|
कितनी आसानी से नाले को नदी में बहा देते हैं, पर कोई सोंचता है क्या की हम
इन नालों की दुर्गन्ध नहीं सह सकते तो ये मूक और बेचारी सी नदी कैसे सहती होगी? हम
घर में पीने के पानी को ढककर रखते हैं ताकि वो दूषित न हो जाये पर हम नदियों में
कितनी आसानी से मल-मूत्र को बहा देते हैं| चाहे शहर हो या गाँव उसका दम फूल रहा
है, वह हांफ रहा है| साँस, किडनी या त्वचा के बिमारियों का इलाज तो हम आसानी से
किसी अस्पताल जाकर करा लेते हैं, पर यह शहर कहाँ जाए अपने को लेकर?
पहले हमने प्रकृति व उसके आवोहवा को बीमार किया अब वो हमें कर रही
है... है ना...
लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा... (गुस्सा इसलिए की 150 किलोमीटर की सड़क को लगभग 5 फिट बढाने
के नाम पर कई हज़ार पेड़ों को कटते देखा है... ताकि टेंडर मिले और करोड़ों डकारे
जाएँ| मेरी उम्र काफी छोटी थी, फिर भी उस वक्त काफी गुस्सा आया था... ये तो ट्रेलर
है...)
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