खाकी रंग की वर्दी, लाल बेल्ट, लाल-लाल जुटे, उड़े हुए बालों को ढँकने की नाकाम कोशिश करती उनकी
टोपी, कंधे पर अंग्रेजी हुकूमत की याद दिलाती बंदूकें व
जनता की आवाज को कुचलने वाली लाठियां लेकर खटारे जीप में चलने वाली बिरादरी को हम
पुलिस के नाम से जानते हैं। इनकी कृपा से बहुत सारे ठेले-रेहरीवालों के लिए दो
वक्त की रोटी का इंतज़ाम हो जाता है। बदले में उन्हें या तो रोज़ाना दुकान का सामान
खिलायेगा या हफ्ता देगा! यही नहीं इनकी
असली कमाई तो पैसे लेकर अपराधियों को छोड़ दिए जाने से ज्यादा सड़क पर वाहनों की
जांच से ही होती है। लोगों के निर्मम चेहरे देखकर उनकी गाड़ियाँ रोकने के बाद उसकी
चाभी निकल ली जाती है, जबकि मोटर वाहन अधिनियम में गाडी की चाभी को हाथ
लगाने की सख्त मनाही है। उसके बाद लाइसेंस के नाम पर तो प्रदुषण के नाम पर
नागरिकों को परेशान करके मोल-भाव किया जाता है और ये पैसे सरकार के पास जाने की
जगह पर सीधे उनके पेट में चली जाती है। कुछ वक्त पहले तो U.P. में नकली रसीद छपाकर करोड़ो गबन का
मामला सामने आया था।
पर, महत्वपूर्ण सवाल ये है की आखिर गरीब, निर्दोष और निर्मम लोग ही पुलिसिया ज्यादती का शिकार क्यों होते हैं? केश, मुक़दमे का सबसे ज्यादा शिकार देश का मध्यम वर्ग ही होता है। आपराधिक
मामलों में पुलिस जांच, अपराधी को कम तथा पीड़ित को ज्यादा दुःख
देने वाली होती है। अक्सर कोई घटना होने के बाद सबूतों को सुरक्षित करके पहले
अपराधी का पक्ष जानना चाहिए ताकि शुरुआती स्तर पर ही मामला साफ हो सके। लेकिन
वर्त्तमान पुलिस नियमों से ठीक विपरीत पहले पीड़ित का बयान लेती है और अक्सर उसे
डरा-धमकाकर मामला वापस लेने का दबाव बनाती है। उसके बाद अपराधी को थाने बुलाने की
सूचना किसी तीसरे व्यक्ति से दिलाती है। ऐसा क्यों? कौन अपराधी खुद चलकर पुलिस थाने आएगा? मतलब वहां भी मोल-भाव वाली स्थिति पैदा
होती है, केश कमजोर करने के इतने और न पकड़ने के
इतने । है ना!
मैंने
अबतक सड़क पर किसी लाल-पीली बत्ती लगी गाड़ियों को हाथ मारते किसी भी पुलिसकर्मी को
नहीं देखा। हाईप्रोफाइल मामलों में पुलिस की किस तरह से पसीने छूटते हैं, वो जगजाहिर है। तो क्या नियम, कानून के बाद अब पुलिस भी सिर्फ अमीरों
के लिए है? लगता तो ऐसा ही है, क्योकि 1857 की स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेज़ों ने police act बनाया ताकि भविष्य में ऐसे आन्दोलनों
को दमनतापूर्वक दबाया जा सके। और आजादी के इतने सालों के बाद भी वही कानून बिना
रोक-टोक के चल रहा है, सरेआम निहथ्थी भीड़ पर लाठियां चला दी
जाती है। हालत ये हैं की पुलिस की बर्बरता का शिकार होने से रोकना तो दूर इन ठेले
वालों, झुग्गी-झोपडी वाले गरीबों को कोई पूछता
भी नही। अतिक्रमण हटाने के कोर्ट के आदेश के बावजूद भी बिल्डिंगों का बाल भी बाँका
नहीं होता क्योकि वे सुप्रीम कोर्ट से स्टे हैं। पर इन गरीबों के लिए सुप्रीम कोर्ट
स्थानीय प्रशासन ही होता है और उनका आर्डर सर्वोपरि! सड़क किनारे भुंजे बेचने वाले, जूते सीने वाले और सब्जी बेचने वाले
इनकी लाठियाँ बहुत आसानी से सह लेते हैं, क्योकि
गरीबी के रेगिस्तान में जगह-जगह कैक्टस की तरह उगे अमीरों को देखकर भी ही हमारी
सरकार अमेरिका को पीछे छोड़ देने के सपने देख रही हो पर, इन गरीबों के लिए यही लाठियाँ उनके लिए
रोटी का भी इंतज़ाम करती है.…
गंभीर
अपराधों और घोटालों की जांच के राज्य पुलिस के ज्यादातर रिकॉर्ड यही बताते हैं की
पुलिस बड़े ठंढेपन और टरकाउ अंदाज़ में जांच करती है। और यदि मामले का जुड़ाव
सत्ताधारी पार्टी से हो तो पुलिस का लक्ष्य अपराधी का पता लगाना नहीं बल्कि किसी
खास को आरोपों से बचाना होता है। मध्य प्रदेश में व्यापम, बिहार में दवा घोटाला, धान घोटाला इसके उदाहरण हैं। पिंजरे में
बंद तोते का ख़िताब हासिल कर चुकी CBI की
साख अन्य एजेंसियों से कुछ बेहतर तो जरूर है, इसलिए
हर मर्ज की दवा में CBI की मांग की जाती है। क्योकि वर्त्तमान
पुलिस जनता के प्रति कर्तव्यपरायण होने के स्थान पर अपने वरिष्ठ अधिकारीयों और
नेताओं के स्वामिभक्त भक्त अधिक होते हैं।
राज्यों की पुलिस की साख इतनी ख़राब हो चुकी है की कहीं दंगा हो जाए तो
तुरंत सेना बुलाने की मांग की जाने लगती है। क्योकि वही डर यह भी होता है की
स्थानीय पुलिस राजनीतिक पहुँच वाले अपराधियों को पकड़ने के बजाये उन्हें बचाने की
कोशिश करेगी। ऐसे में स्थानीय चुनौतियों से निपटने के लिए राष्ट्रीय संसाधन का
हमें उपयोग करना पड़ता हैं जो की पुलिस की लचर कानून व्यवस्था से ही उत्पन्न होती
है।
जाहिर
है, देश में पुलिस सुधार को लागू किये बिना
व पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेपों से मुक्त किये बिना पुलिस बर्बरता का शिकार बनती
निर्मम जनता को सिर्फ कानून के सहारे बचाना मुश्किल है.....
"वर्दी का धौंस दिखाने वाले अंदर से उतने ही corrupt होते हैं.....जितने भीड़ से पत्थर दिखाते ही भाग खड़े होते है.…"
लेखक:-
अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर 'कहने का मन करता
है…'(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं.… पेज पर आते रहिएगा …
No comments:
Post a Comment