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27 June 2017

नेतागिरी और गांधीगिरी

नेताओं की नेतागिरी और गांधी की गांधीगिरी में एक चीज कॉमन है वह जनता से चुटियागिरी!
नेताओं में गांधीवादी विचारधारा के कारण ही कोई कोर्ट-कानून उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाता भला गांधी जी के फोटो के नीचे एक गांधीवादी की विचारधारा का मजाक कैसे उड़ाया जा सकता है?

गांधी चरखे से शिकार करते थे और आजकल के नेता बंदूक से शिकार कर रहे हैं आधुनिकीकरण करना पड़ता है भाई! क्योंकि शिकार भी फुर्तीला हो चला है!
नेतागिरी में टोपी पहनना और सर झुकाना जरूरत है जैसे की गांधीगिरी में अनशन करना पुलिस की लाठियों को निमंत्रण है!

नेताजी से ज्यादा गांधीगिरी तो हमारे नेताइन जी को पता होता है यू माथे पर काला चश्मा टांगकर हीरोइनों वाली अदा में टाटा कंपनी का प्रचार करते मैसेज माउंटबेटन से कम नहीं दिखती! पार्टी पॉलिटिक्स अब सर झुकाते हैं उनके जलवे के ब्लोअर तले!

गांधी जी के अनेक प्रयोगों में नारी शक्ति का बेजा इस्तेमाल हुआ था इनसे सीखते हुए कितने नेता-नेताईन और पार्टी मोबाइल के आधुनिक दुनिया में मशहूर हो चुके हैं! आसाराम बापू तो बेचारे बदनामी के बाबा साहब बना दिए गए! 
महात्मा गांधी के विचारों पर चलने का दावा करने वाले आजकल तेजी से अरबपति बनने जा रहे हैं तो कोई रोज उठकर चक्कर काट कर सेटिंग करने की फिराक में घूम रहा है और सेटिंग भी उसी गांधी के फोटो के नीचे होती रही है जहां बदलाव दिखने की बात लाल किले से चीखकर कही जा रही है!

गरीबों का हक छीन रहा है फिर भी देश में गांधीवाद मजबूती से खड़ा है! लोगों के नस-नस में भरा है! अरे भ्रष्टाचार तो अपवाद है क्या उखाड़ लेगा ये इकॉनमी का!इतने सालों से तो हो ही रहा है तो क्या विकास नहीं हुआ?
गांधीवाद इससे लड़ने के लिए पिछले 70 सालों से जूझ रहा है. वह भले ही अलग है कि अब अंग्रेजों का जमाना नहीं रहा!

बकलोली और संविधान से लौंडघेरी गांधी और बाबासाहेब के विचारों से प्रभावित होकर नेतागिरी के अधिकारों में जनता का सेंध लगाना ठीक वैसे ही यह संवैधानिक है जैसे चुनाव के वक्त नेता का गरीब के घर चला जाना! 

गांधीवाद, समाजवाद, राजनीतिवाद करते रहो बेटा! मलाई खाने वाले मलाई खा खा कर तोंद फुला लेंगे लेकिन सूंघने तक नहीं देंगे साले...

लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग परकहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... ब्लॉग पर आते रहिएगा...



23 January 2017

जल्लीकट्टू ने औकात दिखाई...

जनता के मनोभाव, उनके आस्था, उनकी परम्परा या उनकी सांस्कृतिक गतिविधियों पर बिना सोंचे समझे प्रहार करना हमारी व्यवस्था, हमारे न्यायतंत्र के लिए एक अच्छा सबक मिला है| धर्म आधारित आस्था व विश्वास के सांस्कृतिक पहलुओं पर कोर्ट को खुद मसीहा घोषित करने का दांव इस बार उल्टा पड़ गया| जनमानस की भावनाओं को अनदेखा करना या फिर जबरन उनके आचार-विचार में अपने तुगलकी फरमान ऊपर से थोप देना व्यवस्था के लिए सीख है| तमिलों ने दिखाया की वे कैसे अपनी अस्मिता के लिए सरकार से भीड़ कर अपनी बात मनवायेंगे और अदालत के निर्णयों की अवहेलना कर सकते हैं|

पशु क्रूरता संरक्षण से संबंधित पेटा की अपील पर 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने जल्लीकट्टू पर प्रतिबन्ध लगाया था| सरकार की एक के बाद एक अपील को खारिज कर कोर्ट ने जनता को चिढाया| खाने में हड्डियाँ चूस-चूसकर खाने वाले लोंगों के पशु प्रेम ने जनता को उग्र होने पर मजबूर किया| अपनी सांस्कृतिक विरासत छिनते देखकर भी तमिलों का संयम पिछले दो वर्षों से नहीं टुटा, पर इस बार युवा तमिल नौजवानों के स्वयंस्फूर्त जोश ने व्यवस्था से लड़ने-भिड़ने को प्रेरित किया| सोशल मीडिया में दक्षिण के साथ-साथ उत्तर भारतीयों ने जल्लीकट्टू का जिस तरह समर्थन किया, अदालत को आँखें दिखाई, सरकार को निकम्मा घोषित किया वही आज जल्लीकट्टू बहाल करने की चिंगारी बनी| तमिलों के इस विरोध ने भारत की सांस्कृतिक विविधता में की जा रही तोड़-फोड़ को एक नई दिशा दिखाई है| मतलब, लोग अब क्या खाएं, क्या पहनें, क्या खेलें-क्या कूदें इसके लिए अदालतों का मुंह नहीं देखेंगे| जाहिर सी बात है की जनता के हिंसक और उग्र रवैये से न लोकतंत्र का भला होगा और न ही अदालतों के हठी रवैये से जनता का|

भारत में हिन्दुओं के धार्मिक आस्थाओं, विश्वास में जितना सुधार हुआ है उसी ने हिन्दू एक जीवन शैली की पहचान दिलायी| सती-प्रथा, नरबली, पशु-हत्या, हिन्दू विवाह, स्त्रियों को समान हक़ जैसे सुधारों ने भारत को मानवीय दृष्टिकोण से संवेदनशील बनाया| इस्लामी सुधारों के प्रति सामाजिक संगठनों और अदालतों का विद्रोह का डर हमेशा पैठा रहा है| पशु-क्रूरता की पराकाष्ठ वाले इस्लाम पर पेटा जैसे संगठनें कहीं नहीं दिखती| तो सिर्फ सांढ़ों को बगैर नुकसान पहुंचाए खेल-खेलने में ये इतने संवेदनशील हो सकते हैं तो तमिल और हिन्दू अपनी परम्परा के लिए क्यों नहीं? सरकार और अदालतों का धर्म विभेद बेशक इस बार हिन्दुओं की मनोदशा में गहरा पैठा है|

तो कुल मिलाकर जल्लीकट्टू विवाद दादागिरी से दादागिरी का भिड़ना माना जाएगा| मतलब अदालतों की दादागिरी रवैये को इस बार युवाओं ने दादागिरी से भिड़कर सरेआम बेइज्जती कर दी| यक़ीनन, पिछले कुछ सालों में धर्म-आस्था के मसले पर बेवजह दिलचस्पी दिखाकर अदालतों ने अपने को बार-बार नीचा दिखाया है| जनता की संवेदनशीलता सरकार आसानी से परख सकती है और उसे जन-जागरूकता के माध्यम से ही धीरे-धीरे उनके व्यवहारों में सुधार लाया जा सकता है|
नहीं तो डंडे की भाषा इस्तेमाल करने में आत्म-विश्वास कभी-कभी भारी पड़ जाती है और लोग सांढ की तरह उग्र होकर लाठी से व्यवस्था को हांक भी डालते हैं...

Image result for jallikattu issue imageलेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... ब्लॉग पर आते रहिएगा...