आज हमारा देश संविधान लागू होने की 67वीं वर्षगांठ मन रहा है| देश
आजाद हुआ तो शासन को संभाले के लिए अपने संविधान अपने कानून की जरूरत महसूस ही
जाने लगी| आंबेडकर सरीखे बुद्धिजीवी लोगों ने अपनी जिम्मेवारियों को बखूबी निभाते
हुए देश के लिए एक अनोखा संविधान तैयार किया, जिसमें जनता के जितने अधिकार हैं
उनसे कहीं ज्यादा नेताओं के विशेषाधिकार है| जिसमें अमेरिका, आस्ट्रेलिया,
ब्रिटेन, जर्मनी जैसे देशों की नियम-कायदे को अपना अपना बनाया गया| निष्पक्ष
न्यायपालिका बनी तो कार्यपालिका की डोर को थामे विधायिका के लिए खूब सारे इंतजाम
किये गए, शक्तियां दी गयी| एक नजरिये से देखें तो संविधान जो भी बनाया गया है अभी
भी चल रहे अंग्रेजी कानूनों से अच्छा ही है| फिर भी अबतक अपना कानून बनाने की
जरूरत क्यूँ नहीं महसूस की गयी? अगर संविधान देश का बनाया चले तो कानून अपना क्यों
नहीं? क्यों हम अभी भी अंग्रेजी सांचे में रची-बसाई बगिया में उलझे हैं, जहाँ
हमारी खुद की भाषा की कोई अहमियत नहीं, कोई पूछता तक नहीं| जहाँ न्यायालय के एक
फैसले को सुनने के लिए सारी जिन्दगी भी कम पड़ जाती है! फिर भी न्याय मिले इसकी कोई
गारंटी नहीं देता|
67 वर्षों के इस
लम्बे सफ़र में हमारे देश ने काफी कुछ देखा है और उसे सहा भी है| संविधान की ओट
लेकर हमें आपातकाल दिखाया गया, शाहबानों प्रकरण में दिखाया गया की न्यायपालिका से
भी सर्वोच्य कोई है, जिसके आगे संविधान कुछ भी नहीं| दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र
में सबसे बड़ा लिखित संविधान आम आदमी के अधिकारों की सबसे बड़ी पैरवीकार है तो वहीँ
नुमाइंदों के असीमित स्वन्त्रता की बेड़ियाँ भी है| इस संविधान का सबसे बड़ा रक्षक
सुप्रीम कोर्ट इसकी रक्षा के लिए हमेशा डंडे लेकर बैठा है| इस संविधान ने आम आदमी
को बोलने की आवाज दी है, गलत को चुनौती देने का साहस दिया है तो देश में कहीं भी
आने-जाने और रहने-बसने की स्वन्त्रता भी दी है| लेकिन क्या यही वास्तविकता है, यही
सच है जो हमें दिखाया जाता है, बताया जाता है या कुछ और?
सरकार अक्सर इस
संविधान की भूरी-भूरी प्रशंसा करते नहीं थकती और जनता भी| पर अब लोग इसमें मौजूद
कमियों को निकालने लगे हैं, इसे बेहतर बनाने की मांग करने लगे हैं जो एक स्वस्थ
लोकतंत्र का अंग है| लेकिन कैसे? कौन लडेगा सरकार से, उनकी पुलिस से? एक बार तो
पुलिस ज्यादती से सहम कर सर्वोच्य न्यायालय ने टिप्पणी की थी की ‘पुलिस सरकार का गुंडा है’| जो अपने मालिक के हित के लिए
सदैव समर्पित होता है|
ये सही है की संविधान
ने आम आदमी को जीने की स्वतंत्रता दी है, बोलने की आजादी दी है, कहीं भी रहने की
छुट दी है| पर क्या ये सारे अधिकार भारतवासियों के पास है? कहीं सभा करो तो पुलिस
लाठियां चलाती है और अशांति फैलाने के मुकदमें दर्ज कर देती है| वो सारे लोग 10-15
साल कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाते रहते हैं सिर्फ ये साबित करने के लिए की वे अशांति
नहीं फैला रहे थे| नेताओं पर बोलो तो जेल में डाल दिया जाता है| हम कश्मीर में बस
नहीं सकते| हम भारतीय भाषाओं में पढ़कर न तो बेहतर डॉक्टर बन सकते हैं न ही
इंजीनियर| हमें मुकदमें भी अंग्रेजी में लड़ने पड़ते हैं, नौकरी करने के लिए
अंग्रेजी सीखनी पड़ती है उसे रटना पड़ता है| संविधान को बदलने का अधिकार जिन
नुमाइंदों ने खुद अपने हाथ में रखी है, वो जरा इतिहास उठाकर देखें की कितने बदलाव
बिना किसी राजनीतिक मकसद के हुई है? कोर्ट रोक लगाता है तो फिर से नया क़ानून बना
लेते हैं| परेशानी खड़ी करने वाले जजों पर महाभियोग चलाकर हटा देते हैं|
कुल मिलाकर नतीजा यह निकलता है की यह
देश, इसका संविधान और इसकी नीतियाँ राजनीति के भुलभुलैये में उलझकर रह गयी है|
संविधान और कानून का राज नाम का एक टिमटिमाता तारा दिखाकर लोगों को भरोसा दिया जा
रहा है और रहेगा भी| अपना संविधान चाहे 67 सालों का भले ही हो गया लेकिन देश की
राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां बताती है की उस उम्र की परिपक्वता पाने
में हम सक्षम नहीं हैं, जिसके सपने हमारे पूर्वजों ने पाले थे| इसलिए संविधान की
ओट में अपना हित साधनों वालों की झूठ-मुठ की महिमामंडन से मुझे सख्त नफरत है...
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