09 June 2022

श्रम स्पेशल

औधोगिक क्रांति के बाद से भारत का सबसे ज्वलंत शब्द.. फिर भी इसकी क़ीमत आज तक निर्धारित नहीं हो सकी.. इस अकेले शब्द ने दुनिया भर में न जाने कितने अर्थव्यवस्थाओं को उठाया और गिराया है !

एक मज़दूर लाख बूँद पसीना टपका के देश में इंफ़्रास्ट्रक्चर का जाल भी बुन दे तो उसके श्रम का मूल्य नगण्य है। इतना की बस उसके परिवार का पेट भर सके.. तन पर बमुश्किल नए कपड़े चढ़ सके !

कहीं एयर कंडीशन कमरे में बैठ कोई दिमाग़ के बिलियंस न्यूरोन का एक रत्ती भर हिस्सा को श्रम पर लगा दे, तो यही दुनिया उसका बहुत बड़ा मूल्य चुकाती है.. इतना की इस दुनिया जहाँ की सारी अय्याशी उसके क़दमों में आ जाती है. इतना की हज़ार पसीने चुलाने वाले श्रमिकों का पेट शांत कर सके.
दोनों मामले में श्रम ही हो रहा है लेकिन आउटपुट अलग अलग है. अर्थव्यवस्था की पटरी मजदूर हैं और इलीट क्लास वाले इंजन.. देश की इकॉनमी मजदूर के पसीने से सिंचित हो रही है और सुप्प्लिमेंट्स एलिट क्लास से मिल रहा. दोनों का महत्व देश के विकास के लिए है..


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भारत में श्रम का महत्व कम रहने के कारणों में आर्थिक नीति के साथ साथ नेतागिरी ने बेड़ा गर्क कर दिया.
आज भी हालात ज्यादा नहीं बदले हैं, महंगाई बढ़ी है तो पैसे का बाजार में फ्लो रहना ही है तो गरीब भी थोड़ा बहुत बेसिक जरूरतें पूरी कर ले रहा है !
लेकिन श्रम और पूंजी का टकराव बरकरार है.
किसी मजदूर से बात कीजिये तो लगेगा दुनिया का सारा शोषण सुनियोजित तौर पर उनका मालिक कर रहा है. मिनिमम वेज बढ़ाने, बोनस देने, PF/ईएसआई के लिए शिकायत करेगा. काम के घंटे और कम करने की सलाह सुनाएगा.. मालिक पर कार्रवाई न करने के कारण सरकार को कोसेगा.
मालिक आज भी मजदूर से ज्यादा सरकारी विभागों और टैक्सेशन कंप्लायंस मैनेज करने में पड़ा है. वो अच्छे HR को बहाल करते हैं ताकि कम से कम रूपये में सरकारी लायबिलिटी चूका दें या चोरी कर लें ! मजदूरों से कम पैसे में कितना अधिक प्रोडक्शन करा लें उसे इसकी चिंता अधिक है. सरकार लेबर लॉ अनुपालन खत्म कर दे बाकि मजदूरों के स्वास्थ्य और भविष्य की चिंता उसे क्यों करनी है !


श्रम मजदूर का और मुनाफा मालिक का.. यह हमेशा से वाम नेताओं को कचोटता है. कई फैक्टरियां इसी कारण बंद हुई..
मजदूरों के दिमाग में यह बात सीधे फिट कर जाता है की उसके श्रम से मालिक मुनाफा कमा कर मर्सिडीज से घूम रहा. खुद बड़ी बड़ी कोठियां खरीद रहा और हमें बैलों की तरह फैक्टरियों में जोत रहा.. नतीजा यूनियनबाजी पनपती है और मालिक प्लांट बंद कर आराम से दूसरे शहर में नया बिज़नेस खोल लेता है.
फिर बैठिये शहर के चौराहे पर अपना श्रम बेचने को...
भयावह हकीकत है यह... श्रम शक्ति का कीमत और महत्व दोनों कम होने के बहुत कारक हैं.
सरकारी कार्यालयों के रईस लाट साहब खुद को देश का पालनहार से कम नहीं समझते. ये वर्ग सबसे सॉफ्ट श्रमिक के केटेगरी में आता है। निजी कारख़ानों के मज़दूरों की जो जो अपेक्षाएँ होती हैं उससे कई गुना ज़्यादा सरकार उन्हें वास्तविक में मुहैया कराती है लेकिन आउट्पुट माइनस में..
फिर इनके श्रम की क़ीमत लगाने को सरकार निजीकरण कर रही है तो माइक बांधकर कार्यालय के बाहर चिल्ला रहे...


सरकार को दोनों पहिये चलाने हैं इसलिए बैलेंस बनाने की कोशिश आज भी जारी है. समाजवाद और पूंजीवाद के बीच में देश आज भी फंसा हुआ है.. श्रमिक और मालिक के मध्य संयम बना रहे इसके लिए दोनों के डिमांड के आगे सरकार आज भी झुकती है... टैक्स बढाकर आज भी सरकार मजदूरों के लिए नई कल्याणकारी योजनाएं बनाती है..
लेकिन श्रम का मूल्य आपका दिमाग ही तय करता है... इस 7 बिलियन आबादी के जंगल में आपके दिमाग के पास शिकार का स्किल होना चाहिए बस, आपके श्रम की मुंहमांगी कीमत दुनिया चुकायेगी...







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