17 February 2016

इन्सालाह! देशद्रोही की परिभाषा क्या हो...

इंसाल्लाह! भारत की बर्बादी से कश्मीर की आजादी तक जंग करेंगे, जंग करेंगे! कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा...! ऐसा कहना देशद्रोह नहीं है, ये हमारी अदालत का मानना है की जबतक ये लोग देश को नुकसान ना पहुंचा दें देशद्रोही नहीं कहा जा सकता| पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया में एक उबाल सा आया हुआ है| हर कोई इसका समर्थन करने वालों को खरी-खोटी सुना रहा है| राहुल गांधी की बर्बादी की कामना की जा रही है तो कांग्रेस के भी टुकड़े-टुकड़े करने की कसम खाई जा रही है| इनसब से इन्हें क्या हासिल होने वाला है? कुछ भी नहीं! सारी राजनीतिक पार्टियाँ अगर युद्ध के वक्त पाकिस्तान के साथ भी खड़े हो जाए न तो भी हमारी सरकार उनका कुछ भी नहीं उखाड़ सकती| और उलटे संसद चलने देने के लिए उनकी आरती ही उतारेगी|

किसी देश में ऐसा नहीं देखा गया है की अपने देश की परंपरा, संस्कृति और उसकी विरासत का इस्तेमाल करके कोई उसकी ही बर्बादी के सपने देखे, उसे मिटा देने की कसमें खाए| जेएनयू के विधार्थियों की भी अपनी एक अलग पहचान बनी है अलगाववाद से लबरेज राष्ट्रभक्ति का, उन्मादी जूनून का| जिसमें वामपंथी विचारधारा का जहर घुला है तो दोगलेपन का राष्ट्रद्रोह आतंकवाद भी| जिस शिक्षा के मंदिर में उसे किसी गरीब के दिए टैक्सों से मुफ्त में पढने को मिलता हो, रहने को मिलता हो, अपनी वामपंथी विचारधारा को पनपाने की खुली छुट मिलती हो उसे भी इनलोगों ने नहीं बख्शा|

“छात्र राजनीति के नाम पर भारत के एकता को खंडित करने वाले जरा शर्म करो| ये उस भारत की महानता है जहाँ तुम्हारे जैसे गद्दारों की रक्षा के लिए वीर सपूत हनुमंथप्पा जैसे सैनिक अपने देश की निःस्वार्थ सेवा करते हुये शहीद हो जाने का जज्बा रखता है|”  मुझे शर्म आती है अपने कमजोर और पिलपिले विपक्ष पर| पता नहीं की कांग्रेस पार्टी से लेकर राहुल गांधी और उनके चमचों की बुध्धि किसने हर ली? कम से कम अफज़ल गुरु का समर्थन करने से पहले उन्हें कांग्रेस का इतिहास तो पता कर लेना चाहिए था! पंडित नेहरु अपने परनाती की दूरदर्शिता से खुश हो रहे होंगे या नहीं मुझे तो नहीं पता लेकिन इतना जरूर जानता हूँ की जेएनयू में लगी देशद्रोही नारों का समर्थन करके कांग्रेस नें भाजपा और मोदी की फ़ालतू की इमेज चमका दी|

Image result for hamara tiranga jhanda in hindiविपक्ष को याद रखना चाहिए की देश में संघ का शासन है और पूरा देश राष्ट्रवाद के रंग में रंगा है| देश के प्रति जरा भी संवेदनहीनता करने वालों को उनका गुस्सा झेलना पडेगा| देश अब अपने वीर जवानों के लिए मोमबतियां जलाने लगा है, तो वहीँ उसके लिए मंदिरों में प्रार्थनाएं करने लगा है| मोदी सरकार बहुत खुशकिस्मत है की उसे कांग्रेस जैसा विपक्ष पिलपिला विपक्ष मिला है और राहुल गाँधी जैसा नेता! सरकार की कारवाई में की गयी देरी को कांग्रेस के नासमझी ने जनता के गुस्से से बचा लिया|

Image result for hamara tiranga jhanda in hindiराहुल से लेकर सोनिया, नीतीश, ममता और मुलायम सभी को ये समझना होगा की भारत को बर्बाद करने की इच्छाशक्ति रखने वाले देशद्रोही छात्रों का समर्थन करके उन्हें किसी भी सच्चे देशभक्ति का जज्बा रखने वाले का समर्थन कभी नहीं हासिल हो सकता| अगर ये सारी पार्टियाँ इस तरह की गैरजिम्मेदाराना हरकतें और बयान जारी करती रही तो इसमें कोई शक नहीं की बीजेपी को उत्तर प्रदेश में ज्यादा मेहनत करनी पड़े...

लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना (“मैं मोदी सरकार द्वारा की गयी कारवाई से बिलकुल भी प्रभावित नहीं हूँ. सरकार ने सोशल मीडिया के दवाब में आकर कारवाई की यही सच है| मैं सरकार की प्रशंसा तभी करता जब ऐसी ही नारे लगाने वाले कश्मीरी देशद्रोहियों के खिलाफ अपनी सख्ती दिखाती, पर वहां तो उसने भारत के टुकड़े करने का प्रस्ताव लाने वाले, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने वाले पीडीपी-विधायकों से मिलकर सरकार चलाई...    सत्ता का नशा किसी से क्या नहीं करा देता...”)

09 February 2016

शादियों में खाने का मज़ा...

मैं बचपन से ही शादी-पार्टियों में खाने का शौक़ीन रहा हूँ| बचपन में जब गाँव में रहता था तो वहां बाराती वालों के बाद गाँव-मुहल्ले को खिलाने का इंतजाम किया जाता था| जब तक काफी रात हो चुकी होती थी और मैं भी बुलावे का इंतज़ार करते-करते भूखे पेट ही सो जाता था| उस वक्त जनरेटर का इंतजाम संपन्न लोग ही करते थे, बिजली दूर की बात थी| टॉर्च के सहारे निमंत्रण स्थल तक पहुंचना तो साथ में लोटे में पानी लेकर जाना और जमीन पर पंगत में बैठकर गैस लाइट की रौशनी में पूरी-सब्जी खाना, इन सारी चीजों की अब कमी खलती है| क्योंकि आधुनिक जो हो गए हैं हम...

पत्ते की सौंधी खुशबु वाली प्लेट में पूरी-बुंदिया-सब्जी खाने की बात कुछ और ही है, लेकिन बचपन में लगभग हर एक निमंत्रणों में मुझे इसके और चटनी के अलावा कुछ नहीं मिलता था| तब मैं सोचता था की मैं भी एक दिन बड़ा होऊंगा और इनलोगों के जैसे मुफ्त में मिठाइयाँ खाऊंगा| (उम्मीद है की आप मुस्कुरा रहे होंगे...)

अब शादी-पार्टियों में वो बात नहीं रही| अब तो मैं बड़ा भी हो गया हूँ और अन्य भारतीय युवाओं की तरह मैं भी सौ रुपये देकर दो सौ का खाना चट कर जाने में यकीन रखता हूँ| फिर भी ऐसा नहीं है की निमंत्रण के दिन दोपहर से ही भूखे नहीं रहता हूँ, बेशक रहता हूँ और जमकर खाता हूँ| पेट भर जाने के बाद भी एक-दो बार और आइसक्रीम खा लेता हूँ, आखिर सौ रुपये वसूल तो करने ही हैं|

बताइए की मैं ऐसा क्यूँ न करूँ? जहाँ दो-तीन खाने के आइटमों से भी मेहमानों की तशरीफ़ रखी जा सकती है वहीँ अब हमारा समाज इस फ़ोकट के दिखावे के लिए जमकर पैसे बहा रहा है| मिडिल क्लास परिवारों की हालत है की जितना वो खाने पर खर्च करते हैं उससे कहीं ज्यादा सजावट पर खुद को लुटा देते हैं| समारोह संपन्न होने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति क्या हो जाती है बताने की जरूरत नहीं| पता है आपको की एक रिसर्च में बताया गया है की लोग शादियों में जितना खाते हैं उससे ज्यादा जूठन फेंक देते हैं| और हमने तो इसे बार-बार महसूस किया है|

पश्चिमी सभ्यता के नाम पर फैशन और दिखावे की इस चकाचौंध में हमारा समाज अँधा होता जा रहा है| बहुत जरूरी है की हमें आगे आकर अन्न की इस बर्बादी को रोकने के लिए पहल करनी चाहिए ताकि किसानों की मेहनत का सम्मान हो, भूखे की तादाद कम हो| पर लोग मानेगें, इसकी कम ही उम्मीद है| नहीं मानेगें तबतक मैं दोपहर से ही भूखे रहकर इनलोगों को सौ देकर दो सौ का खाना चट करता रहूंगा....   ये मेरी प्रतिज्ञा है...

लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना (किसी को मेरे लेख से बुरा लगे तो माफ़ कीजियेगा और अच्छा लगे तो तीन सौ वसूल कीजिये... क्योंकि सामाजिकता एक तरफ और पूरी-सब्जी अपनी तरफ...)

04 February 2016

संघ के हौंसले पस्त क्यों?

राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ अपने 90 साल के इतिहास में एक कड़क, दृढ़ और पूर्ण समर्पित राष्ट्रभक्त की अपनी छवि एकसमान बरक़रार नहीं रख पाया है| संघ की निस्वार्थ सेवा व उसकी मंशा पर कोई देशभक्त सवाल नहीं खड़ा कर सकता, इतना तो तय है| भारतवर्ष के इतिहास में पहली बार जनता ने परोक्ष रूप से शासन चलाने का आदेश दिया पर इन दो वर्षों में संघ व उनके स्वंसेवक नेता अपनी दृढ़ता एक बार भी साबित नहीं कर पाए हैं| कोई चाहे या न चाहे फिर भी सबको पता है की संघ जाति, धर्म या रंग के आधार पर भेद नहीं करता यह शाश्वत है| लेकिन संघ के इस शासन के दौरान दर्जनों ऐसी घटनाएं सामने आई जिसके सामने संघ या भाजपा को अपनी मजबूत इच्छाशक्ति दिखानी चाहिए थी, बजाए की वह मुद्दे पर रक्षात्मक रवैया अपनाए| इन सभी के कारण बीजेपी से ज्यादा संघ की बदनामी हुई|

सबसे पहले की जम्मू-कश्मीर में इसके स्वंसेवक मोदी एंड कंपनी ने ऐसा स्टैंड लिया, जिसकी अपेक्षा न तो कोई संघ से कर सकता था और न ही मोदी से| इस राजनीतिक अपरिपक्वता का परिणाम दिखने भी लगा है| दूसरा, दादरी घटना पर सरकार का मौन धारण कर लेना स्वंसेवकों को शर्मिंदा कर गया| संघ से जुड़े लोग चिल्लाते रहे की केंद्र सरकार इस घटना पर अपना दब्बूपन दिखाने के बजाए विपक्ष के ऊपर आक्रामक होकर इस घटना के लिए यूपी सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाए, संसद में राज्य के कानून-व्यवस्था न चला पाने का निंदा प्रस्ताव पास करे| लेकिन कोई नहीं सुना... सब पीएम को बचाने में जुटे रहे| मालदा जैसी घटना पर सरकार की शिथिलता से बेशक उनकी लुटिया डूबेगी और अगली बार तो युवा हिन्दू नौजवान संघ की भी नहीं सुनने वाला| बिहार में ऐसे संकेत मिल भी चुके हैं और यूपी में कुछ ऐसा ही होना वाला है|

ऐसी-ऐसी दर्जनों घटनाओं के ऊपर केंद्र और संघ जैसे को तैसा या आक्रामक फैसले लेने की जगह रक्षात्मक रवैये में नजर आई| सरकार कई मौकों पर तो विपक्ष से डर कर फैसला पलट चुकी है| मैं पहले भी कहता रहा हूँ की भाजपा के 17 करोड़ वोटर मिस-कॉल के सहारे टिके नहीं रह सकते| उन्हें कुछ कर के दिखाना होगा, उम्मीद पैदा करनी होगी, भरोसे में रखना होगा| 2014 का माहौल जहाँ देशवासी गुस्से से उबल रहा था और एक ऐसे जलते दिये पर अपना भरोसा जाता रहा था जिसपर आंधी-तूफ़ान झेल लेने का भरोसा था| उन सब में सचमुच का एक सेक्युलर राष्ट्र बना देने का कल्पना भी साथ था, जहाँ कोई फैसले धर्म देखकर न लिए जाएँ| हिन्दूओं का मंदिर बनना चाहिए तो मुसलमानों का मस्जिद भी| कुरान की इज्जत होनी चाहिए तो गीता की भी इज्जत हो| ऐसा नहीं होता की किसी के भगवान् को सरेआम गाली दो सही और अगर वो कुछ वैसी ही तारीफ़ करे तो सड़क पर उतर कर कट्टरता दिखाने का झूठा नाटक वो भी अपने ही गली में...

संघ की शिथिल पड़ती अपनी दृढ़ता को संवारने की जरूरत है और भी वक्त रहते| नहीं तो फिर से यही कहा जाएगा की हम हिन्दूओं को राज करना नहीं आता...

लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... ब्लॉग पर आते रहिएगा...


03 February 2016

एक बेरोजगार युवा का प्रधानमंत्री को ख़त...

जैसे ही सत्ता बदलती है, बेरोज़गारों की उम्मीदें उस वक्त आसमान छू रही होती है। देश का बेरोज़गार युवा वर्ग अखबारों में GDP के आंकड़े देखकर खुश हो जाता है की चलो अब देश तो तरक्की कर रहा है और वो इसी तरक्की वाले आकड़ों के दम पर नौकरी पाने के सपने पाल बैठता है। लेकिन अफ़सोस...
बेरोजगारी का दर्द एक बिहारी युवा से ज्यादा कौन जानता है? क्या गुजरती है उस युवा पर जिसकी उम्र बुढ़ापे की तरफ तेजी से ढल रही होती है फिर भी वो मां-बाप के बदौलत अपना गुजर-बसर कर रहा होता है? अपनी भविष्य की चिंता लिया युवा नौकरी पाकर सब कठिनाइयों से उबरना चाहता है, पर यह कम्बखत नौकरी है की आने की नाम ही नहीं लेती! गाँव के शानदार वातावरण को छोड़कर शहर के उबाऊ भीड़ और आवाज चीरकर रख देने वाली शोरगुल के भुलभुलैये में आकर वो युवा कहीं गुम सा हो जाता है| जैसे-तैसे और बेढंगे से बने लॉज और सड़ांध मारती गलियों में गुजर-बसर करना कितना कठिन है बताया नहीं जा सकता, वहीँ उसकी कीमत न जानने में ही हमें ख़ुशी मिलती है| पारिवारिक और सगे-सम्बन्धियों के माहौल में पलने वाला युवा एकाएक एकांत में डाल दिया जाता है| उसके ऊपर मां-बाप, भाई-बहन न जाने कितने उस पर अपने उम्मीदों और आकांक्षाओं का बोझ लाद देते हैं| कुछ बनने, कुछ कर दिखने के सपने इतने सारे बोझों के तले रेत की महल के समान ढहने लगता है| कभी उसे घर की याद सताती है तो कभी दोस्तों की| किचन जितने बड़े कमरे में उस युवा की प्रतिभा मोतियों की तरह बिखर रही होती है| तकिये में मुंह छुपाकर रोने का दर्द जिस दिन इस देश के नायक जान जायेंगे, यकीन मानिए उनकी आंसू निकल पड़ेगी| छुप-छुप कर घर की याद में रोना और अगले ही पल कुछ बनकर सब बेहतर कर देने के हौसले से उसमें हिम्मत आ जाती है और वो फिर से पढने लगता है, उसे रटने लगता है|

उसके दोस्त उसे शहर लाकर किसी अच्छे से कोचिंग में नामांकन करा देता है और उस युवा के उम्मीदों-हौंसलों में अच्छे सरकारी पदों के बारे में बताकर पंख लगा देता है| जितने वक्त वो पढने में बिताता है उससे ज्यादा वक्त उसे खाना बनाने व उसे धोने-साफ़ करने में लगता है| लॉज से कोचिंग और कोचिंग से लॉज उसकी रोजमर्रा की दिनचर्या हो जाती है| मनोरंजन के नाम पर तो अब मोबाइल में फिल्म डाउनलोड करके भी देख लेता है, लेकिन तीन-चार साल पहले वही युवा किसी दूकान के कोने पर लगे टीवी में गोविंदा या भोजपुरिया डांस देखकर खुश हो जाता था| भीड़ बढती तो दूकानदार उसे अपने तरफ मोड़ लेता था| उस युवा को जब भी घर से फ़ोन आता है तो उसे फिर से पापा के उसके पढने के लिए जुटाए गए पैसों की अहमियत समझ आने लगती है और वह मनोरंजन छोड़कर फिर से पढने लगता है|
सबसे अहम सवाल है की ये बेरोज़गार हैं कौन? ये कोई डुप्लेक्स बंगले में रहने वाले अरबपति के बेटे नहीं हैं। इनका बाप न ही किसी फैक्ट्री का मालिक है और न ही ये किसी सांसद या विधायक के सगे संबंधी होते हैं। ये सरकार द्वारा आंकड़ों में उलझाया व टोयोटो से चलने की सपने देखता युवा होता है। 5X8 के कमरे में रहने वाला, मकान मालिक द्वारा सताया और कई बार भूखे सो जाने वाला छात्र होता है, जिसे हम भारत का भविष्य कहते हैं। 

अब तो हालात काफी बदल गए हैं, टेक्नोलॉजी उन्नत हो रही है और युवा सोशल साइट्स की आदतों के शिकार हो चुके हैं| शाम को कम सब्जी खरीदकर वो युवा नेट पैक भरवाने लगा है, नौकरियों की जानकारियां अपडेट रखने लगा है| सरकार एक ही फैसले में नेट पैक पर टैक्स लादकर महँगी कर देती है पर शायद उसे इस युवा की तकलीफों का तनिक भी अंदाजा नहीं| सरकार बड़ी आसानी से नौकरियां रोक देती है और घाटा कम करने की नाकाम कोशिश करती है| लेकिन सीबीआई कोर्ट में केस लेने से इंकार करती है की उसके पास चपरासी से लेकर अफसर तक की कमी है| यही नहीं, सरकार के हर विभाग में कर्मचारियों की कमी का रोना रोया जाता है| सरकार रिक्तियां न निकालकर कितनों की सपने पूरे न होने देने का अभिशाप झेल रही है| आखिर सरकार भी क्या करे, एक ओर विपक्ष का हल्ला है तो दूसरी तरफ 125 करोड़ आबादी की अपनी-अपनी परेशानियाँ| किसे सुने, क्या करें?

एक बेरोजगार युवा जब 25 वर्ष से ज्यादा उम्र का होने लगता है तो उसके हौसलों के पंख ढीले पड़ने लगते हैं| रेलवे जैसी बड़ी आकांक्षाओं वाली सेक्टर के 18 हज़ार सीट के लिए 1 करोड़ से ज्यादा आवेदन की खबर उसे तोड़कर रख देती है| एसएससी और रेलवे जैसे आयोगों की किसी भी पद पर नौकरी करने की चाहत रखने वाले युवा, प्रतिभा होने के वाबजूद भी इस देश के कुछ गद्दारों की वजह से उसका अधिकार छीन लिया जाता है और उसे अयोग्यों को दे दिया जाता है| मुश्किल ये है की हम युवा कभी आईएएस या आईपीएस बनने के सपने देख भी नहीं सकते| क्लर्क स्तर के परीक्षाओं की तैयारी करने में उसके अभिभावकों की माली हालत दयनीय हो जाती है|

एक बेरोजगार युवा को सबसे ज्यादा तकलीफ समाज और परिवार के लोगों द्वारा दिए गए ताने से होता है| वह ताने के डर से किसी परिवार के यहाँ जाना नहीं चाहता| नतीजा, वह भारतीय संस्कृति और उसके तौर-तरीकों से धीरे-धीरे कटता चला जाता है सिर्फ बेरोजगारी की वजह से| राजनीति में इन युवाओं की दिलचस्पी पहली बार काफी सक्रिय तौर पर देखी गई जब युवा मोदी की रैलियों में खम्भों पर चढ़कर मोदी-मोदी के नारे लगाता था, गांधी मैदान रैली में मैंने भी लगाईं थी| उनके लिए इस देश का मुखर युवा, धारा बनकर दिल्ली के सिंहासन तक बिना थके पुरे चुनाव तक सोशल मीडिया की मदद से बहता रहा| लेकिन अफ़सोस की उन युवाओं के भविष्य की चिंता किसी को नहीं है जो बेरोजगार है, घर का सामान लाकर दस-बीस बचाकर सौ रुपये का इंटरनेट रिचार्ज कराता था उनपर टैक्स लादकर कीमत दुगुनी तक कर दी गयी|

दर्द होता है की विदेशी भाषाओं की अनिवार्यता से ही सही लेकिन नौकरी तो मिले| हम क्लर्क स्तर के नौकरी के लिए लिए जा रहे तीन परीक्षा देने को स्वीकार करते हैं| सरकार रिक्तियां निकाले, बाकी का काम हम बेरोजगारों पर छोड़ दे... हम एग्जाम से निपट लेंगे और सरकार देश के परीक्षा माफियाओं से सांठ-गाँठ रखने वालों के  खिलाफ कड़े कानून बनाकर उससे निपटे...

                        आपका अपना
        अश्वनी कुमार, पटना


एक बेरोजगार युवा की तकलीफें

बेरोजगारी का दर्द एक बिहारी युवा से ज्यादा कौन जानता है? क्या गुजरती है उस युवा पर जिसकी उम्र बुढ़ापे की तरफ तेजी से ढल रही होती है फिर भी वो मां-बाप के बदौलत अपना गुजर-बसर कर रहा होता है? अपनी भविष्य की चिंता लिया युवा नौकरी पाकर सब कठिनाइयों से उबरना चाहता है, पर यह कम्बखत नौकरी है की आने की नाम ही नहीं लेती! गाँव के शानदार वातावरण को छोड़कर शहर के उबाऊ भीड़ और आवाज चीरकर रख देने वाली शोरगुल के भुलभुलैये में आकर वो युवा कहीं गुम सा हो जाता है| जैसे-तैसे और बेढंगे से बने लॉज और सड़ांध मारती गलियों में गुजर-बसर करना कितना कठिन है बताया नहीं जा सकता, वहीँ उसकी कीमत न जानने में ही हमें ख़ुशी मिलती है| पारिवारिक और सगे-सम्बन्धियों के माहौल में पलने वाला युवा एकाएक एकांत में डाल दिया जाता है| उसके ऊपर मां-बाप, भाई-बहन न जाने कितने उस पर अपने उम्मीदों और आकांक्षाओं का बोझ लाद देते हैं| कुछ बनने, कुछ कर दिखने के सपने इतने सारे बोझों के तले रेत की महल के समान ढहने लगता है| कभी उसे घर की याद सताती है तो कभी दोस्तों की| किचन जितने बड़े कमरे में उस युवा की प्रतिभा मोतियों की तरह बिखर रही होती है| तकिये में मुंह छुपाकर रोने का दर्द जिस दिन इस देश के नायक जान जायेंगे, यकीन मानिए उनकी आंसू निकल पड़ेगी| छुप-छुप कर घर की याद में रोना और अगले ही पल कुछ बनकर सब बेहतर कर देने के हौसले से उसमें हिम्मत आ जाती है और वो फिर से पढने लगता है, उसे रटने लगता है|
                                               
Image result for youth bihari imageउसके दोस्त उसे शहर लाकर किसी अच्छे से कोचिंग में नामांकन करा देता है और उस युवा के उम्मीदों-हौंसलों में अच्छे सरकारी पदों के बारे में बताकर पंख लगा देता है| जितने वक्त वो पढने में बिताता है उससे ज्यादा वक्त उसे खाना बनाने व उसे धोने-साफ़ करने में लगता है| लॉज से कोचिंग और कोचिंग से लॉज उसकी रोजमर्रा की दिनचर्या हो जाती है| मनोरंजन के नाम पर तो अब मोबाइल में फिल्म डाउनलोड करके भी देख लेता है, लेकिन तीन-चार साल पहले वही युवा किसी दूकान के कोने पर लगे टीवी में गोविंदा या भोजपुरिया डांस देखकर खुश हो जाता था| भीड़ बढती तो दूकानदार उसे अपने तरफ मोड़ लेता था| उस युवा को जब भी घर से फ़ोन आता है तो उसे फिर से पापा के उसके पढने के लिए जुटाए गए पैसों की अहमियत समझ आने लगती है और वह मनोरंजन छोड़कर फिर से पढने लगता है|

अब तो हालात काफी बदल गए हैं, टेक्नोलॉजी उन्नत हो रही है और युवा सोशल साइट्स की आदतों के शिकार हो चुके हैं| शाम को कम सब्जी खरीदकर वो युवा नेट पैक भरवाने लगा है, नौकरियों की जानकारियां अपडेट रखने लगा है| सरकार एक ही फैसले में नेट पैक पर टैक्स लादकर महँगी कर देती है पर शायद उसे इस युवा की तकलीफों का तनिक भी अंदाजा नहीं| सरकार बड़ी आसानी से नौकरियां रोक देती है और घाटा कम करने की नाकाम कोशिश करती है| लेकिन सीबीआई कोर्ट में केस लेने से इंकार करती है की उसके पास चपरासी से लेकर अफसर तक की कमी है| यही नहीं, सरकार के हर विभाग में कर्मचारियों की कमी का रोना रोया जाता है| सरकार रिक्तियां न निकालकर कितनों की सपने पूरे न होने देने का अभिशाप झेल रही है| आखिर सरकार भी क्या करे, एक ओर विपक्ष का हल्ला है तो दूसरी तरफ 125 करोड़ आबादी की अपनी-अपनी परेशानियाँ| किसे सुने, क्या करें?

एक बेरोजगार युवा जब 25 वर्ष से ज्यादा उम्र का होने लगता है तो उसके हौसलों के पंख ढीले पड़ने लगते हैं| रेलवे जैसी बड़ी आकांक्षाओं वाली सेक्टर के 18 हज़ार सीट के लिए 1 करोड़ से ज्यादा आवेदन की खबर उसे तोड़कर रख देती है| एसएससी और रेलवे जैसे आयोगों की किसी भी पद पर नौकरी करने की चाहत रखने वाले युवा, प्रतिभा होने के वाबजूद भी इस देश के कुछ गद्दारों की वजह से उसका अधिकार छीन लिया जाता है और उसे अयोग्यों को दे दिया जाता है| मुश्किल ये है की हम युवा कभी आईएएस या आईपीएस बनने के सपने देख भी नहीं सकते| क्लर्क स्तर के परीक्षाओं की तैयारी करने में उसके अभिभावकों की माली हालत दयनीय हो जाती है|

एक बेरोजगार युवा को सबसे ज्यादा तकलीफ समाज और परिवार के लोगों द्वारा दिए गए ताने से होता है| वह ताने के डर से किसी परिवार के यहाँ जाना नहीं चाहता| नतीजा, वह भारतीय संस्कृति और उसके तौर-तरीकों से धीरे-धीरे कटता चला जाता है सिर्फ बेरोजगारी की वजह से| राजनीति में इन युवाओं की दिलचस्पी पहली बार काफी सक्रिय तौर पर देखी गई जब युवा मोदी की रैलियों में खम्भों पर चढ़कर मोदी-मोदी के नारे लगाता था, गांधी मैदान रैली में मैंने भी लगाईं थी| उनके लिए इस देश का मुखर युवा, धारा बनकर दिल्ली के सिंहासन तक बिना थके पुरे चुनाव तक सोशल मीडिया की मदद से बहता रहा| लेकिन अफ़सोस की उन युवाओं के भविष्य की चिंता किसी को नहीं है जो बेरोजगार है, घर का सामान लाकर दस-बीस बचाकर सौ रुपये का इंटरनेट रिचार्ज कराता था उनपर टैक्स लादकर कीमत दुगुनी तक कर दी गयी|

दर्द होता है की विदेशी भाषाओं की अनिवार्यता से ही सही लेकिन नौकरी तो मिले| सरकार रिक्तियां निकाले, बाकी का काम हम बेरोजगारों पर छोड़ दे... हम एग्जाम से निपट लेंगे और सरकार देश के परीक्षा माफियाओं से सांठ-गाँठ रखने वालों के  खिलाफ कड़े कानून बनाकर उससे निपटे...


लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना (इन सब से दर्द होता है उसे महसूस करता हूँ, विचलित हो जाता हूँ तो कहने का मन करने लगता है..... इसलिए आपलोगों से कह डालता हूँ...)