07 November 2015

Diwaali : Secularist can be avoid light

The month of festival according to hindu dharma is ashwain & Karthik, Both of the months consist large no. of festival like dushhara, Diwaali, Chhath etc.  Which is the most important religious activity for hindu devotee. Often we have to listen for waste of water in Holi, drawness will create danger for us but, No one can indicate how long is history of holi or Diwaali in present era. 2000 years ago, we were celebrated also holi & lightening the lamp at the occasion of festival of light.  I am really amazed when, these secularist become silent at the all festival of muslims or cristians.  Every festival of islam teach slaughtering, But why didn’t any right activist loud their voice against it?

Image result for diwaali diya imageDiwaali is the symbol of prosperity and happiness.  The dark night of amawasya  gloom when every corner of houses lightening with ‘diyaas’. But unfortunately low lasting chinease electrical bulb & diya have took place over desi soiled diya.  Today’s situation is very critical at the circumstance of economical and dependable on china. Who ever a silent enemy for India.  Now, They are trying to broke our nation at the form of business, which caused unemployment in may sector like small businessmen and labour class.

So, There is nothing happen but, in the name of intolerance, Diwaali would also poached by secularist.  I couldn’t understand the mentality of secularist or, the meaning of exact secularism during I learnt to read newspaper.  Today’s secularism means pro-muslim and anti-hindu.  According to them, Hindu hasn’t have any human right.  All rights are made only for muslims.  So, we can say that in this diwaali,  Secularist can avoid light because light shouldn’t focus on them, which can be stain on their psudo-secularism…..

Are you agree with me?


Writer:- Ashwani kumar….. who ever want to become an independent remarker….. 

03 November 2015

हिन्दू अब बोलने लगा.…

Image result for hindutva imageदिल्ली का सिंहासन हज़ारों सालों तक इस्लाम का गुलाम रहा है। उसने महमूद गजनवी से लेकर बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहांगीर तथा जिन्दा पीर औरंगजेब तक का शासन झेला है। इस दौरान अगर कोई चीज कॉमन थी तो वो हिन्दू का गुलाम बना रहना है। चुपचाप कोड़े खाकर इस्लाम स्वीकार कर लेने वाला हिन्दू अब बोलने लगा है। ज्ञात इतिहास की हकीकत है की हिन्दू गुलाम अधिक रहा है। मुसलमान, अंग्रेज सबका वह दास रहा है और डर-डर कर जिया है।  हैरानी यह है की हज़ार सालों तक इस्लामी राज्य में गुलाम हिन्दू कभी अपने धर्म के प्रति इतने सजग नहीं हुए, जितने की अब हो रहे है।  नेहरू और अंबेडकर की बसाई सेक्युलर भारत में बहुत सारे सेक्युलरिस्ट इस्लाम के इतिहास से डरते हैं।  उनकी अवधारणा सच्ची हो या झूठी, उनका मानना है की भारत तभी तक शांत रह सकता है, जबतक की इस्लाम की तलवार उसकी म्यान में हो। उसके बन्दे उग्र न हो जाएँ, इसलिए उनकी हर ज्यादती को इतिहास से डरकर भुला दें। लेकिन भारत की वास्तविक राजनीति की आड़ में धर्म का सहारा लिया जा रहा है।
असहिष्णुता के मसले पर लेखक सम्मान लौटाने लगे हैं, कुछ सेक्युलर पत्रकारों ने तो हिन्दू की मंशा पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं।  इनसब में से सोशल मीडिया हिन्दुओं का बड़ा भोपूं का काम कर रहा है। युवा इन सारे लोगों से सवाल करने लगी है की जब कर्नाटक में गौ-रक्षक की हत्या हुई तब इस्लाम की मंशा पर सवाल क्यों नहीं उठाये गएयूपी में गौ-तस्करों ने एक दारोगा की हत्या कर दी तब क्यूँ नहीं अख़लाक़ की तरह उसे भी 40 लाख का चेक दिया गयाडॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी पर अंडे फेंके गए तब मीडिआ ने वैसा हल्ला क्यों नहीं किया जैसा कुलकर्णी को लेकर हुआसंयुक्त राष्ट्र की 2010 की रपट है की बंगाल में 28 हज़ार हिन्दू औरतों का अपहरण, धर्मांतरण हुआ तो उस पर लेखक, साहित्यकार, मीडिया सब मौन क्यों रहेक्या भारत में सारे मानवीय अधिकार सिर्फ मुसलमानों के ही हैं? तब क्या इनलोगों की असहिष्णुता की वकालत खेत चरने गयी थी?

इसलिए सारे सेक्युलर घबराये हुए से प्रतीत हो रहे हैं क्योकि शताब्दियों से दास रह हिन्दू सर उठा कर चलने लगा है।  युवा फख्र से कहने लगे हैं 'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं'।  हिन्दू आज गोमांस पर प्रतिबन्ध चाहता है।  पाकिस्तान से खून का बदला खून में चाहता है और मुसलमानों से आँख से आँख मिलकर व्यव्हार करने लगा है। ऐसे में उनलोगों की नींद उड़ जाना स्वाभाविक है, जो अभी भी अपने को इस्लाम की गुलमियत वाली मानसिकता से नहीं निकाल पाये है, जिनका परिवेश, सोच सब अबतक गुलाम है।  कौन हैं ये लोग? आप जानते हैं.....
Image result for hindutva imageये सब संभव कैसे हुआक्योकि हिन्दू-स्वाभिमान की तलवार लेकर आगे बढ़ रहा संघ परिवार देश की सत्ता पर काबिज है। उनके कट्टर स्वंयसेवक देश के प्रधानमंत्री हैं।  'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं' जैसा सोशल मीडिआ का प्रयोजन साधू-संतोँ का नहीं है, बल्कि युवा हिन्दू नौजवानों का है।  जो मुखर हैं, सेकुलरों को ईटों का जवाब पत्थर से देने लगे हैं।  इंसानियत की वकालत करने वाले सेक्युलर लोगों के लिए दोनों धर्म समान हो।  यदि 15 प्रतिशत मुसलमानों के लिए उनके शरीयत, विचार व आस्था का पालन हो तो 80 फीसदी हिन्दुओं की आस्था का भी पालन हो, उनकी आस्था का कानून बने। यह नहीं होता की कश्मीर के मुसलमानों को सर-आँखों पर बिठाया जाए और कश्मीरी पंडितों को वहां बसाने तक न सोची जाए ।

अमेरिका हमें सहिष्णुता सिखाता है, जिसके धर्मनिरपेक्ष मुखौटे के पीछे ईसाइयत कूट-कूट कर भरी है।  हिन्दू को न तो ईसाई जैसा जबरदस्ती प्रचलित बनाना है और न ही इस्लाम जैसा खून की नदियां बहाकर साम्राज्य विस्तार करना है, क्योकि हिन्दू धर्म वेटिकन से नहीं चलता, खलीफाओं से नहीं चलाया जाता, किसी एक किताब के सहारे पर भी नहीं टिका है.…  मेरे यहाँ किसी को सूली पर नहीं लटकाया जाता, किसी को पत्थर मारकर दुनिया से नहीं उठाया जाता।  हम सेक्युलर हैं, आधुनिक हैं, लिबरल भी हैं और चरखे से शिकार करने वाले भी नहीं हैं.……

लेखक:- अश्वनी कुमार ,( बहुत सारे लोग मेरे विचारों से असहमत भी हो सकते हैंक्योकि चेहरा डरावना होने का पता तभी चलता है जब सामने वाला आईना दिखाए।  गुस्सा तो आएगा …  क्योंकि अब हिन्दू बोलने लगा है, सर उठाकर चलने लगा है...)

29 October 2015

मैं अच्छा नहीं चुन पाया …

कल सुबह पटना क्षेत्र में वोटिंग का दिन था। मैं नहा-धोकर वोटिंग करने निकला था पर, उत्सुकतापूर्वक अपने आसपास के बूथों के बाहर जमें लोगों की गतिविधियाँ देखने में लग गया। एक तरफ से मतदाता आते और लगभग 200-300 मी० की दुरी से ही उन्हें बरगलाने की कोशिश की जाती। केंद्र की सामने वाली गली में दिन-भर खाने-पीने का इंतज़ाम था, पीने का मेरा मतलब पानी के साथ-साथ शराब भी। गली-गली में नाश्ते से भरे डब्बे घरों तक पहुँचाये जा रहे थे। बीस-पच्चीस लोगों का हुजूम सुबह-सुबह से ही अपनी जाति वाले मतदाताओं के घर पर जाकर अपनी ही जाति के उम्मीदवार को वोट देने की सलाह दे रहे थे। और हाँ न मानने पर पैसे का भी पूरा बंदोबस्त था।

ये सब देखते हुए मैं वहां से कुछ दूर स्थित अपने बूथ पर चला। मैंने आजतक ये सारी चीजें किताब और टीवी-रेडियो में ही सुनी थी, लेकिन कल मैंने अपनी आँखों से देखी।  मैं सकपका गया, मुझे चुनाव आयोग की मासूमियत और उसके ओवर कॉन्फिडेंस पर तरस आ रहा था। मेरा मन अपने अंतर्द्वंदों से लड़ता हुआ बार-बार सवाल करने लगा की क्या बिहार की जनता ऐसे लुच्चे-लफंगों के सरदार को चुनकर वाकई अपना भला कर लेगी या लोकतंत्र का भला कर देगीया सबकुछ वैसा ही रहने वाला है जैसा पहले थाखुद को राजनीति का तीस मार खां समझने वाले बहुत सारे लोग ट्रेनों में या चाय के दुकानों पर शोर के सहारे अक्सर इन सारे पहलुओं को भुला देने का प्रयास करते हैं। सभी की कमियां निकालते हैं, लेकिन कल मैं उन्ही जैसे लोगों को भी उसी आधार पर अपना वोट कास्ट करने को कहते देखा, जिससे न तो कभी भारत की इस गरीब जनता का भला हो सकता है और न ही लोकतंत्र का।

कुल मिलाकर, इस चुनाव में पैसे पानी की तरह बहाए गए। लेकिन इस पानी से कुछ निहायत गरीबों की क्षण भर की प्यास बुझती देखी तो दिन तो पलभर ही सही सुकून तो आया। नाश्ते के डब्बे को देखकर एक दिन ही सही उनके बच्चों की चहचहाट से उनका घर सराबोर तो हुआ!  लेकिन बिहार की जनता का भारत की राजनीति में जितना कद है उस अनुसार वो नाममात्र भी अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर पायी।  इसलिए कहा जा सकता है की बिहार की जनता अपने लिए कोई अच्छा खड़ा करने की दृढ़ता ही नहीं दिखा पायी, गुंडों को टिकट दिए गए, कारोबारी पैसे के दम पर टिकट पा गए और बड़े नेता अपने भोन्दु से लाडले को चुनाव लड़ा गए।

बेशक, बिहार की जनता जिसे चुने, वह अच्छा नहीं चुन पाएगी। बिहार में जाति का गठबंधन लड़ा भी, उसे वोट पड़ा भी और जाति का गठबंधन जीतेगा भी.(और... स्वाभाविक है, मैं भी अच्छा नहीं चुन पाया…..)
लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर 'कहने का मन करता है'(ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं....

27 October 2015

अपना वोट किसे दूँ?

शोर-शराबे का सिलसिला अब थम चूका है, चुनाव अपने अंतिम दौर में सरपट भागा चला जा रहा है। हर उम्मीदवार, हर राजनीतिक दल सत्ता का सुख पाने के लिए बेचैन है। पर उनकी तरह मैं भी असमंजस में पड़ा हूँ की अपना वोट आखिर किसे दूँ? मेरे क्षेत्र में जितने भी उम्मीदवार मैदान में खड़े हैं, चाहे वो बीजेपी का हो, जदयू का हो या फिर निर्दलीय हो, सारे उम्मीदवारों तथा मौजूदा विधायक को पिछले 5 सालों के दौरान न तो उन्हें जनता की समस्याओं से रूबरू होते देखा है और न ही क्षेत्र के लिए जनसेवा करते। यहाँ तक की अधिकतर उम्मीदवार को क्षेत्र में कोई जानता भी नहीं, बस पार्टी ने टिकट दे दी और चले आये चुनाव लड़ने!


मेरे लिए राजनीतिक दल के आधार पर वोट देना उलझन भरा है। कुत्ते-बिल्ली जैसी लड़ रही BJP-JDU-RJD तीनों ही गाली-गलौज और लोकलुभावन वादों के अलावा जनता के समस्याओं के मुद्दे पर चुनाव लड़ने की जगह एक-दूसरे की कमियां गिनाने में लगे हैं। नीतीश की विचारधारा सेकुलरिज्म का तथाकथित मिसाल है, जो इस भय में जी रहे है की भारत में उनका राज तभी तक सुरक्षित रहेगा जबतक इस्लाम की तलवार उसकी म्यान में हो, उन्हें मना कर चलेंगे तभी उनपर राज कर सकेंगे। उनका डर स्वाभाविक है की सत्ता पर संघ परिवार काबिज है और दूसरा की युवा नौजवान फक्र से कहने लगा है की 'गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं' दूसरा उनका अहंकार व सत्ता में बने रहने  लालच उनकी सिर्फ सड़क-पुल बना देने की विकासगाथा को लालू के लिए भुला देने को तैयार हैं।  लालू का कथित जातिवाद राजनीतिक बेवकूफी का एक उदहारण है। संसद में अल्हड़पन, बुड़बकपन लाने का श्रेय लालू को ही जाता है। मंडल के सहारे राजनीतिक जमीन तलाशकर खुद को यादवों का नेता घोषित करके 15 साल में बिहार में शासन किया। इस दौरान उन्होंने यादवों-पिछड़ों का कितना विकास किया ये समूचा राज्य जानता है।  पर हाँ, भले ही गरीब अपना विकास न कर पाया हो, लेकिन इस दौरान लाठी, बन्दुक की नली के सहारे गरीबों का शोषण भी हुआ और भ्रष्टाचार-अपराध का तेज़ गति से फला-फुला भी। सेक्युलर जमात में शामिल लालू को भी इस्लाम के नेक और अनेक बन्दों को लेकर उतनी ही चिंता है जितना की नितीश को।

चुनाव आयोग अपनी जिम्मेवारी बखूबी निभा रहा है, लेकिन उसे राजनीतिक वंशवाद, अवैध खर्चों तथा बेलगाम जुबानों पर प्रतिबन्ध लगाना होगा। हर कोई अपने बेटे-पोते को जबरदस्ती जनता पर थोप रहा है, जिसे दस लोगों के बीच सही से बोलना नहीं आता उसे लाखों लोगों का प्रतिनिधि बनाया जा रहा है। चुनावों में टिकट उसे ही दिया जाता है जो करोड़पति हो चाहे उस क्षेत्र का न हो पर, पार्टी को चंदा देने पर सब छिप जाता है। इसलिए, कोई दूध का धुला नहीं है। सभी मक्खियाँ लिपटी है, जरुरत है सत्ता का शहद चूसने से रोकने की। चुनाव सुधार की बात करने की, राईट टू रिकॉल क़ानून लाने की, जल्द न्याय दिलाने की तथा गंवार नेताओं को राजनीति को अपना विरासत समझने से रोकने की। तभी उसके प्रति मेरा सच्चा समर्थन होगा ....भारतीय जनता पार्टी भी खुद को पिछड़ों का हितैषी बताकर वो सबकुछ करने लगी है जो हर किसी को सत्ता का सुख कराती है। गरीब, पिछड़े, कुपोषित, निर्धन जैसे शब्द रैलियों में या कागजों पर ही अच्छी लगती है। वास्तविक हकीकत तभी पता चलेगी तब हेलीकॉप्टरों या लक्ज़री गाड़ियों से उतरकर खेतों में चलें, निर्धन बस्तियों से गुज़रें। सारे दलों ने प्रचार में जिस तरह से पैसे बहाय हैं, अगर वे पैसे गरीबों की बेहतरी पर खर्च कर दिया जाता तो भला हो जाता। लेकिन वे ऐसा क्यों करेंगे? देश की गरीबी मिट जायेगी या सारे अनपढ़ शिक्षित हो जाएंगे तो उनके झंडे कौन ढोएगा, रैलियों में तालियां कौन ठोकेगा? और फिर उनके जल्लाद, शैतान, कनफुँकवा कहने का मतलब ही क्या रह जाएगा?