10 June 2016

मेरे जीवन के आदर्श उसके मूल्य

जीवन, मानव के जीने के तौर-तरीकों और उनके कार्यकलापों के एक सर्वोतम नमूना है| जीवन तो सभी जीते हैं, पशु-पक्षी और मनुष्य भी| पर उनके और हमारे जीने के अंदाज में यही फर्क है की हमारा जीवन एक जीने की कला है| इसलिए की हमारी जीने की कला से हमारी आस्थाओं, विचारों, मूल्यों और रुचियों का पता चलता है| मानव जीवन अपने आदर्शों व उन आदर्शों के मूल्यों के वजह से श्रेष्ठ है| सर्वप्रथम मनुष्य के अपने व्यवहारों, आदर्शों या फिर शिष्टाचार की वजह से उसे अनमोल बनाता है|

     हर व्यक्ति के जीवन में उनकी जीवनशैली की अनुकूलता के लिए लक्ष्य होना बहुत जरूरी है| अगर किसी व्यक्ति का कोई लक्ष्य ही नहीं है तो ठीक वह अपनी जिन्दगी रूपी नौका में बिना पतवार यात्रा कर रहा होता है, जिसका कोई स्पष्ट ठिकाना ही नहीं| जीवन में लक्ष्य हो लेकिन अपने आदर्श भी हो| शिष्टाचार, अनुशासन, ईमानदारी, विनम्रता और सहनशीलता के बगैर हम एक आदर्श जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते| क्या हम समाज में बड़े-बुजुर्गों की अवहेलना करके कभी शिष्ट बन पायेंगे? क्या हम अनुशासनहीन जीवन बिताकर कभी पाबन्द हो सकते हैं? क्या किसी के सामने कटु वाणी बोलकर हम विनम्र की भांति मान-सम्मान पा सकते हैं?  नहीं| कभी नहीं| क्यूंकि मानव जीवन का अस्तित्व ही इन आदर्शों पर टिका है| जिसका मूल्य निम्नतर इंसान को भी श्रेष्ठतर बना देने की काबिलियत रखता है|

     मेरे जीवन के भी कुछ आदर्श हैं और अगर मैं अपने इन आदर्शों पर खड़ा उतरा तो मैं खुद को एक सफलतम इंसान मानने लायक हो जाऊँगा| पहला, मैं जिन्दगी में कभी भ्रष्टाचार नहीं करूँगा| दूसरा, मैं हमेशा गरीब व जरूरतमंदों की सहायता के लिए खुद को खड़ा रखूँगा| अगर जिन्दगी में कभी हैसियत रही तो उन समूहों की बेशक आर्थिक मदद करूँगा जो निःस्वार्थ भाव से निर्धनों की सेवा करते हैं और समय मिला तो मैं भी श्रम दान दूंगा| फिर भी ऐसी बड़ी-बड़ी बातें कर देने मात्र से कोई आदर्श नहीं बन पाता| इसलिए मैं चाहता हूँ की मेरे जीवन का आदर्श हमेशा सार्थक प्रेरणाओं और उसके मूल्यों से ओत-प्रोत रहे| खुद को आदर्श मां पाने का सच तब तक नहीं होगा जबतक हम अपने स्वार्थों व आकांक्षाओं की मांगों से परे जाकर देश के प्रति अपने कर्तव्यों और उनकी जरूरतों को ठीक ढंग से समझ न लूँ|

     इस तरह से जिन्दगी हमें बहुत कुछ सिखाती है| जिन्दगी पत्थर के समान है और प्रकृति जब हमें तरासती है तो दुःख होता है, दर्द होता है| पर जो सह जाता है वही अन्य पत्थरों के बिच जगमगाने लगता है| और फिर उसका स्थान पत्थरों के बीच न होकर जौहरी की तिजोरी में होता है| फिर तो मूल्य के क्या कहने! ये मूल्य जीवन के उन्हीं आदर्शों का होता है जिसके सहारे हम जगमगाते हैं| इसलिए जीवन के आदर्शों का सही ज्ञान व उसका सही अनुप्रयोग ही उसे मूल्यवान बनाता है यही हकीकत है...


लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं... ब्लॉग पर आते रहिएगा... (परीक्षा की तैयारिओं के लिए मैंने ये आर्टिकल लिखी है)

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