अच्छे दिनों के मसले पर हमारा देश जरा ज्यादा ही संवेदनशील है| अच्छे
दिनों का ख्वाब जनता की उम्मीदों पर घी-मलाई लगाने जैसा है| आम चुनावों में इस
नारे की ताकत का अंदाजा कोई नहीं लगा पाया| जनता के लिए अच्छे दिनों का मतलब प्रेम,
भाईचारा या व्यवस्था परिवर्तन से कतई नहीं है| उनके लिए तो अच्छे दिन का अर्थ तब
है जब पेट्रोल 20-25 रु प्रति लीटर हो जाए, दाल चावल की कीमतें आधी हो जाए या फिर
घरेलु जरूरत की समानें कौड़ियों के भाव बिके! देश की बड़ी आबादी अच्छे दिन आने के
अर्थों में इन चीजों को पहले ढूंढती है| पर इसका मतलब यह नहीं की ये आबादी
मुफ्तखोर है या फिर आलसी| देश की आबादी का एक बड़ा
तबका भोली है, मासूम है, रियलिटी से अनजान है या जानबूझकर अनजान बना है| ये वही
सुनते हैं जो समाचार या अखबार कहता है और अखबार वही लिखता है जो नेता अपनी रैलियों
में जुमले सुनाता है| समाचार पत्रों की निष्पक्षता कहीं खो गई है| उसे ढूंढने का
प्रयास भी मत कीजियेगा नहीं तो आपको इतनी उपलब्धियां बताई जायेंगी की आप सेंसेक्स
की भांति ऊपर-नीचे होते रह जाइएगा|
अच्छे दिन कैसे आयें?
विश्व के खुशहाल और समृद्ध देशों में हमारा स्थान 70वां है| पहला स्वीडन है, उसके
बाद डेनमार्क, नार्वे, आयरलैंड, स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस आदि देशों की आबादी खुशहाल
है| ख़ुशी से जिन्दगी बिताने के मामले में उनसे हमारा 70 का अनुपात है| ऐसा क्यों?
क्योंकी भारत की तरह उन देशों में हर कदम पर कानून, प्रशासन या उनकी व्यवस्था लाठी
लिए नहीं बैठी है या बेवजह परेशान नहीं करती| डार्विन ने कहा था की ‘Servival
of the Fitest’ मतलब जिसकी लाठी उसकी भैंस| यहाँ तो
पुलिस-प्रशासन से लेकर एक्साइज, कस्टम, हाकिम, जज, वकील, डॉक्टर, दलाल या तमाम
आयोगों को लाठी देकर सत्ता की चौकसी करते रहने का आदेश है तो उनके लिए तमाम
व्यवस्थाएं भी है और उन्हें खुश रखे रहने का भरपूर इंतजाम भी है| देश का दबा-कुचला
वर्ग चाहे वह छोटा व्यवसायी हो या केश-मुकदमों में बेवजह फंसा डाला गया गरीब या
फिर गलत के विरुद्ध आवाज उठाती रोटी,कपडा,मकान मांगती जनता सभी को सताया जाता है|
उन देशों की व्यवस्था ही
अच्छे दिनों का परिणाम है| और हमारे यहाँ की व्यवस्था में इतने मकरजाल लगा रखे गए
हैं की कोई भी कहीं न कहीं इन जालों में फंसकर उम्मीद ही खो देता है| उन देशों में
लोग पुलिस को देखकर निश्चिंत हो जाते हैं जबकि यहाँ पुलिस आने मात्र से इलाके के
लोग घबरा उठते हैं इसलिए की इन शक्तिमान पुलिसवाले किसी आम को भी गवाही,
कोर्ट-कचहरी के चक्कर में फंसा देते हैं| भारत की
मुकम्मल कानून व्यवस्था पुलिसवालों के इर्द-गिर्द घुमती है| यहाँ किसी भी वक्त सड़कों
पर बैरीकेडिंग लगाकर जांच के नाम पर कई किलोमीटर का लम्बा जाम लगा दिया जाता है|
छोटे बिजनेसमैन हमेशा इस खौफ में धंधा करते हैं की कब कोई फ़ूड, लेबर या सेफ्टी
इंस्पेक्टर आकर फ़ालतू के नियम-कायदों को झाड़कर धंधा ही सील न कर दे|
इस तरह हम इस देश में
अच्छे दिन लाने के सपने को यूँ ही पालकर बैठे रहे, सत्ता बदलती जायेगी, हम लुटते
रहेंगें पर व्यवस्था बदलने को कोई नहीं कहेगा| क्योंकि हमें मुफ्तखोरी की आदत
सदियों से लगी है, इसे छुड़ा पाना मुश्किल है| इसलिए इस व्यवस्था के सहारे ही
जिन्दगी काट लेना हमारी नियति बन चुकी है| जिसकी लाठी उसकी भैंस हैं हम और मार
खाते-खाते अब डंडे का असर भी सिस्टम और लोकतंत्र का एक अंग ही लगता है| लोकतंत्र
के अन्दर सिस्टम है और सिस्टम के अन्दर नेता, नौकरशाह और अफसर मलाई चाट रहे हैं पर
हम लोकतान्त्रिक हैं इसलिए सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाना संघर्ष है और हमें संघर्ष
करने की आदत 68 साल पहले ही छुट गई है|
हम बिना व्यवस्था परिवर्तन के अच्छे दिन के सपने में जी रहे
हैं तो इसका क्या निष्कर्ष है? की हम जाहिल हैं, मुर्ख हैं और अंधे भी...
लेखक:- अश्वनी कुमार, जो ब्लॉग पर ‘कहने का मन करता है’ (ashwani4u.blogspot.com) के लेखक हैं...
ब्लॉग पर आते रहिएगा...
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